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________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा महाभारत में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश हैं । जैन विचार इसी को अविरत सम्यग्दृष्टित्व कहता है। इस स्थिति की जैन व्याख्या यह है कि दर्शनमोह कर्म को शक्ति के दब जाने या उसके आवरण के विरल या क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ बोध तो हो जाता है लेकिन चारित्रमोह कर्म की सत्ता के बने रहने के कारण व्यक्ति नैतिक आचरण नहीं कर पाता। वह एक अपंग व्यक्ति की भाँति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा नैतिक मार्ग को, श्रेय के मार्ग को, जानते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाता। वह हिंसा, झूठ, अब्रह्मचर्य आदि को अनैतिक मानते हुए भी उनसे विरत नहीं होता । फिर भी अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा में भी किसी अंश तक आत्म-संयम या वासनात्मक वृत्तियों पर संयम होता है, क्योंकि अविरत सम्यग्दृष्टि में भी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के स्थायी तथा तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है। क्योंकि जब तक कषायों के इस तीव्रतम आवेगों अर्थात् अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता तब तक उसे सम्यग्दर्शन भी प्राप्त नहीं होता। जैनविचार के अनुसार सम्यक् - अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आत्मा को निम्न सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करना होता है। १. अनन्तानुबन्धी क्रोध ( स्थायी तीव्रतम क्रोध ), २. अनन्तानुबन्धी मान ( स्थायी तीव्रतम मान ), ३. अनन्तानुबन्धी माया ( स्थायी तीव्रतम कपट ), ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ( स्थायी तीव्रतम लोभ ), ५. मिथ्यात्व मोह, ६. मिश्र मोह और ७. सम्यक्त्व मोह | आत्मा जब इन सात कर्म - प्रकृतियों को पूर्णतः नष्ट (क्षय) करके इस अवस्था को प्राप्त करता है तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है और ऐसा आत्मा इस गुणस्थान से वापस गिरता नहीं है, वरन् अग्रिम विकास - श्रेणियों से होकर अन्त में परमात्मा स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । उसका सम्यक्त्व स्थायी होता है, लेकिन जब आत्मा उपर्युक्त कर्म-प्रकृतियों का दमन कर आगे बढ़ता है और इस अवस्था को प्राप्त करता है तब उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। इसमें वासनाओं को नष्ट नहीं किया जाता, वरन् उन्हें दबाया जाता है, अतः ऐसे यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायित्व होता है और आत्मा अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट ) के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रकटीकरण पर उनके प्रबल आवेगों के वशीभूत हो यथार्थता से विमुख हो जाता है। इसी प्रकार जब वासनाओं को आंशिक रूप में क्षय करने पर और आंशिक रूप में दबाने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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