SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यथार्थता का जो बोध या सत्य-दर्शन होता है उसमें भी अस्थायित्व होता है क्योंकि दमित वासनाएँ पन: प्रकट होकर व्यक्ति को यथार्थ दृष्टि के स्तर से गिरा देती हैं। वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन (उपशम) पर आधारित यथार्थ दृष्टिकोण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में इस अवस्था की तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है। जिस प्रकार औपशमिक एवं क्षायोपशमिक की अवस्था से सम्यक् मार्ग से पराङ्मुख होने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार स्रोतापन्न साधक भी मार्गच्युत हो सकता है। महायानी बौद्ध साहित्य में इस अवस्था की तुलना 'बोधि प्रणिधिचित्त' से की जा सकती है। जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा यथार्थ मार्ग को जानती है, उस पर चलने की भावना भी रखती है, लेकिन वास्तविक रूप में उस मार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं कर पाती, उसी प्रकार ‘बोधि प्रणिधिचित्त' में भी यथार्थ मार्गगमन की या लोकपरित्राण की भावना का उदय हो जाता है, लेकिन वह उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद से की है। बोधिसत्व का साधारण अर्थ है - ज्ञान-प्राप्ति का इच्छुक। इस अर्थ में बोधिसत्व सम्यग्दृष्टि से तुलनीय है, लेकिन यदि बोधिसत्व के लोक-कल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना की जाय तो बोधिसत्व पद उस सम्यग्दृष्टि आत्मा से तुलनीय है जो तीर्थङ्कर होने वाला है।' ५. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान वैसे यह आध्यात्मिक विकास की पाँचवीं श्रेणी है, लेकिन नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है, जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है। चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्य-पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता, जबकि इस पाँचवें देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रारम्भिक प्रयास प्रारम्भ कर देता है। इसे देशविरति सम्यग्दृष्टि-गुणस्थान कहा जा सकता है। देशविरति का अर्थ है – वासनामय जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति। हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध, लोभ आदि कषायों से आंशिक रूप में विरत होना ही देशविरति है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा-बहुत यथाशक्ति नियन्त्रण करने का प्रयास करता है। जिसे वह उचित समझता है उस पर आचरण करने की कोशिश भी करता है। इस गुणस्थान में स्थित साधक श्रावक के बारह व्रतों का आचरण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy