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________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा चतुर्थ गुणस्थानवर्ती व्यक्तियों में वासनाओं एवं कषायों के आवेगों का प्रकटन तो होता है और वे उन पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, मात्र उनकी वासनाओं एवं कषायों में स्थायित्व नहीं होता। वे एक अवधि के पश्चात् उपशान्त हो जाती हैं। जैसे तृणपुंज में अग्नि तीव्रता से प्रज्वलित होती है और उस पर काबू पाना भी कठिन होता है, फिर भी एक समय के पश्चात् वह स्वयं ही उपशान्त हो जाती है। किन्तु जब तक व्यक्ति में कषायों पर नियन्त्रण की क्षमता नहीं आ जाती, तब तक वह पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिये अप्रत्याख्यानी ( अनियन्त्रणीय ) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है। जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों पर नियन्त्रण करने की क्षमता नहीं होती वह नैतिक आचरण नहीं कर सकता। इसी कारण नैतिक आचरण की इस भूमिका में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियन्त्रण की क्षमता का विकास होना आवश्यक समझा गया। पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें सँभलने की क्षमता भी होती है। यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो और फिसलने के अवसरों पर इस क्षमता का समुचित उपयोग करता रहे तो वह विकास-क्रम में आगे बढ़ता जाता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण अपने स्थान से गिर भी सकता है। ऐसे साधक के लिये यह आवश्यक है कि क्रोधादि कषायों की आन्तरिक एवं बाह्य अभिव्यक्ति होने पर उनका नियन्त्रण करे एवं अपनी मानसिक विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे। जो व्यक्ति चार मास के अन्दर उनका परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, वह इस श्रेणी से गिर जाता है। ६. प्रमत्त सर्वविरति सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान प्रमत्त-संयत गुणस्थान – यथार्थ बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन अदि अनैतिक आचरण से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते हैं। यह गुणस्थान सर्वविरति गुणस्थान कहा जाता है, अर्थात् इस गुणस्थान में स्थित साधक अशुभाचरण अथवा अनैतिक आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाता है। ऐसे साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का भी अभाव-सा होता है, यद्यपि आन्तरिक रूप में एवं बीज रूप में वे बनी रहती हैं। उदाहरण के रूप में क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्य रूप से तो शान्त बना रहता है तथा क्रोध को बाहर अभिव्यक्त भी नहीं होने देता और इस रूप में वह उस पर नियन्त्रण भी करता है, फिर भी क्रोधादि कषाय वृत्तियाँ उनके अन्तर-मानस को झकझोरती रहती हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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