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________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण उदय, उदीरणा के योग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या में कभी-कभी अन्तर आ जाता है । अतः तालिका में रेखा के ऊपर दी हुई संख्या प्रारम्भिक अवस्था की सूचक है और रेखा के नीचे दी गई संख्या उस गुणस्थान के अन्तिम अवस्था की सूचक है । पुनः विकास-यात्रा में दो गुणस्थानों के बीच एक संक्रमण की अवस्था भी होती है, जो पूर्ववर्ती गुणस्थान की समाप्ति और उत्तरवर्त्ती गुणस्थान के प्रारम्भ की सूचक है। प्रस्तुत तालिकाओं में संक्रमण की अवस्था को उत्तरवर्ती गुणस्थान की प्रारम्भिक अवस्था मानकर ही चर्चा की गयी है। इसी प्रसंग में यह भी ध्यान देने योग्य है कि सातवें गुणस्थान के पश्चात् जब आत्मा उपशम अथवा क्षायिक में से किसी एक श्रेणी का आश्रय लेकर अपना आध्यात्मिक विकास करता है, तो उन गुणस्थानों में श्रेणियों के अनुसार सत्ता आदि की अपेक्षा से कर्म-प्रकृतियों की संख्या में अन्तर होता है, जिन्हें भी इन तालिकाओं में स्पष्ट कर दिया गया है। सर्वप्रथम हमने एक सामान्य तालिका प्रस्तुत की है, उसके पश्चात् आठों कर्मों की उत्तर - प्रकृतियों के विवरण युक्त बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि की अलगअलग तालिकाएँ भी प्रस्तुत की गयी हैं, जिससे पाठकों को यह समझने में सुविधा होगी कि बन्ध, सत्ता आदि की अपेक्षा से अष्ट कर्मों में से किस-किस कर्म की कितनी-कितनी उत्तर - प्रकृतियाँ किस-किस गुणस्थान में होती हैं। प्रथम तालिका को छोड़कर शेष तालिकाएँ द्वितीय कर्मग्रन्थ ( कर्मस्तव ) की पं० सुखलालजी की व्याख्या से उद्धृत की जा रही हैं ७६ Jain Education International ―――――――― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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