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________________ गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त ७५ अधिक और उदय योग्य कर्म-प्रकृतियों की अपेक्षा संख्या में २६ अधिक हैं। ये अधिक कर्म-प्रकृतियाँ कौन सी हैं, इसका स्पष्टीकरण पं० सुखलालजी ने द्वितीय कर्मग्रन्थ ( कर्मस्तव ) की व्याख्या में निम्न प्रकार से किया है - ___सत्ता में योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १४८ मानी जाती हैं। बन्ध योग्य या उदय योग्य कर्म-प्रकृतियों की चर्चा में पाँच बन्धनों और पाँच संघातनों की विवक्षा अलग से नहीं की गई है, किन्तु उन दसों कर्म-प्रकृतियों का समावेश पाँच शरीरनामकर्मों में किया गया है। इसी प्रकार उस चर्चा में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नामकर्म की एक-एक प्रकृति ही विवक्षित है। परन्तु इस सत्ता-प्रकरण में बन्धन तथा संघातन-नामकर्म के पाँच-पाँच भेद शरीर-नामकर्म से भिन्न माने गए हैं। इसी प्रकार वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श-नामकर्म की एक-एक प्रकृति के स्थान पर वर्ण की पाँच, गन्ध की दो, रस की पाँच और स्पर्श नामकर्म की आठ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गई हैं। यथा - १. औदारिक-बन्धननामकर्म, २. वैक्रिय-बन्धननामकर्म, ३. आहारक-बन्धननामकर्म, ४. तैजस-बन्धननामकर्म और ५. कार्मणबन्धननामकर्म – ये पाँच बन्धननामकर्म हैं; ६. औदारिक-संघात-नामकर्म, ७. वैक्रिय-संघातनामकर्म, ८. आहारक-संघातनामकर्म, ९. तैजस-संघातनामकर्म और १०. कार्मण-संघातनामकर्म – ये पाँच संघातनामकर्म हैं; ११. कृष्णनामकर्म, १२. नीलनामकर्म, १३. लोहितनामकर्म, १४. हरिद्र- नामकर्म और १५. शुक्लनामकर्म -- ये पाँच वर्णनामकर्म हैं; १६. सुरभि-गन्धनामकर्म और दुरभिगन्धनामकर्म - ये दो गन्धनामकर्म हैं; १८. तिक्त-रसनामकर्म, १९. कटुक-रसनामकर्म, २०. कषाय-रसनामकर्म, २१. अम्ल-रसनामकर्म, २२. मधुर-रसनामकर्म - ये पाँच रसनामकर्म हैं; २३. कर्कश-स्पर्शनामकर्म, २४. मृदु-स्पर्शनामकर्म, २५. लघु-स्पर्शनामकर्म, २६. गुरु-स्पर्शनामकर्म, २७. शीत-स्पर्शनामकर्म, २८. उष्ण-स्पर्शनामकर्म, २९. स्निग्ध-स्पर्शनामकर्म, ३०. रुक्ष-स्पर्शनामकर्म - ये आठ स्पर्शनामकर्म हैं। इस तरह उदययोग्य १२२ कर्म-प्रकृतियों में बन्धन-नामकर्म तथा संघात-नामकर्म के पाँच-पाँच भेदों को और वर्णादिक के सामान्य चार भेदों के स्थान पर उक्त २० भेदों के गिनने से कुल १४८ कर्म-प्रकृतियाँ ( १२२+१०+१०+२०-४=१४८ ) सत्ताधिकार में होती ह प्रत्येक गुणस्थान में किन-किन कर्म-प्रकृतियों का बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि सम्भव होते हैं, इन्हें समझने के लिये आगे कुछ तालिकाएँ दी जा रही हैं। इन तालिकाओं के सम्बन्ध में कुछ बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो प्रत्येक गुणस्थान की प्रारम्भिक और अन्तिम अवस्था में बन्ध, सत्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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