SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण नामकर्म, ४१. उपघात - नामकर्म, ४२. उच्छास- नामकर्म, ४३. आतप - नामकर्म, ४४. उद्योत - नामकर्म, ४५. अगुरुलघु- नामकर्म, ४६. तीर्थङ्कर नामकर्म, ४७. निर्माण - नामकर्म ये आठ प्रत्येक नामकर्म हैं; ४८ त्रस - नामकर्म, ४९. बादर - नामकर्म, ५० पर्याप्त नामकर्म, ५१. प्रत्येक नामकर्म, ५२. स्थिरनामकर्म, ५३. शुभ-नामकर्म, ५४. सुभग-नामकर्म, ५५. सुस्वर - नामकर्म, ५६. आदेय - नामकर्म और ५७. यशः कीर्त्ति नामकर्म ये त्रसदशकनामकर्म हैं; ५८. स्थावर - नामकर्म, ५९. सूक्ष्म-नामकर्म, ६० अपर्याप्त नामकर्म, ६१. साधारणनामकर्म, ६२. अस्थिर नामकर्म, ६३. अशुभ नामकर्म, ६४. दुर्भग- नामकर्म, ६५. दु:स्वर - नामकर्म, ६६. अनादेय-नामकर्म और ६७. अयश: कीर्तिनामकर्म ये स्थावरदशकनामकर्म हैं। इस प्रकार नामकर्म की कुल सड़सठ प्रकृतियाँ हुईं। ७४ नीचगोत्र | - ―――― ( ७ ) गोत्र - कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - ( ८ ) अन्तराय - कर्म की पाँच कर्म- प्रकृतियाँ हैं २. लाभान्तराय, ३. भोगान्तराय, ४. उपभोगान्तराय, और ५. Jain Education International १. उच्चगोत्र और २. इस प्रकार ज्ञानवरणीय की ५, दर्शनावरणीय की ९, वेदनीय की २, मोहनीय की २६, आयुष्यकर्म की ४, नामकर्म की ६७, गोत्रकर्म की २ और अन्तराय की ८, ऐसी कुल १२० कर्म - प्रकृतियाँ बन्धयोग्य हैं। ―― उदय एवं उदीरणा योग्य १२२ कर्म प्रकृतियाँ जहाँ बन्धयोग्य कर्म-प्रकृतियों की संख्या १२० हैं, वहाँ उदययोग्य कर्म - प्रकृतियों की संख्या १२२ है । इस अन्तर का कारण यह है कि जहाँ मोहनीय कर्म में बन्ध मात्र मिथ्यात्वमोह का होता है, वहाँ उसका उदय मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह इन तीन रूपों में होता है। मिथ्यात्व मोह के स्थान पर इन तीनों को समाहित करने पर मोहनीय कर्म की उदययोग्य कर्मप्रकृतियाँ २६ के स्थान पर २८ हो जाती हैं। इस प्रकार उदययोग्य कुल कर्मप्रकृतियाँ १२२ हो जाती हैं। इनमें जिन दो की वृद्धि हुई है, वे हैं सम्यक्त्व - मोह और मिश्र - मोह | १. दानान्तराय, वीर्यान्तराय। सत्तायोग्य १४८ कर्म - प्रकृतियाँ जैन कर्म-सिद्धान्त में जहाँ बन्ध योग्य कर्म - प्रकृतियाँ १२० और उदय योग्य कर्म-प्रकृतियाँ १२२ हैं, वहाँ सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियाँ १४८ हैं। इस प्रकार सत्ता योग्य कर्म-प्रकृतियाँ बन्ध योग्य कर्म - प्रकृतियों की अपेक्षा संख्या में २८ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy