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________________ ११४ स्थापित करता है। ११. उपशान्तमोह नामक गुणस्थान में सत्त्व का तमस्, रजस् पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्त्व पूर्व अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण १२. क्षीणमोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है जिसमें साधक पूर्वावस्थाओं के तमस् तथा रजस् का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है। यह विशुद्ध सत्त्वगुण की अवस्था है। यहाँ आकार सत्त्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है। साधक को अब सत्त्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्त्वगुण का भी परित्याग कर देता है जैसे काँटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है। यहाँ नैतिक पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं तपन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरूपी स्थान समाप्त हो जाता है। १३. सयोगीकेवली गुणस्थान आत्मतत्त्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उनसे प्रभावित नहीं होती । वस्तुतः अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में न रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं । साधना सिद्धि में परिणत हो जाती है । साधन स्वभाव बन जाता है। डॉ० राधाकृष्णन् के शब्दों में, “तब सत्त्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है । " २९ १४. गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग-प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन परम्परा में अयोगीकेवली गुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक धारणा जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त के निकट है। योगवाशिष्ठ और गुणस्थान - सिद्धान्त इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गयी हैं, जिनमें सात आध्यात्मिक 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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