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सप्तम अध्याय गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त
गुणस्थान सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त दोनों एक दूसरे से निकट रूप से सम्बन्धित हैं। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा के बन्धन का कारण कर्म है और कर्मों के बन्ध, विपाक आदि का विवेचन कर्मसिद्धान्त करता है, अत: आत्मा की बन्धन से विमुक्ति तक की यात्रा को कर्मसिद्धान्त के अभाव में नहीं समझाया जा सकता। पुन: गुणस्थान सिद्धान्त आत्मा के आध्यात्मिक विकासक्रम को या उसकी बन्धन से विमुक्ति की यात्रा को स्पष्ट करता है। अत: गुणस्थान सिद्धान्त
और कर्मसिद्धान्त को एक दूसरे के अभाव में नहीं समझा जा सकता है। दार्शनिक चिन्तन के इतिहास की दृष्टि से भी गुणस्थान सिद्धान्त का विकासक्रम कर्मसिद्धान्त के विकासक्रम का सहगामी है। जैसे-जैसे कर्मसिद्धान्त गहन और सूक्ष्म होता गया वैसे-वैसे गुणस्थान सिद्धान्त में गहनता और सूक्ष्मता आती गयी। कसायपाहुड और षटखण्डागम ( महाकर्मप्रकृतिशास्त्र ) मूलतः कर्मसिद्धान्त के ग्रन्थ हैं, किन्तु उनकी चर्चा का प्रारम्भ गुणस्थानों के रूप में वर्णित कर्मविमुक्ति की विभिन्न अवस्थाओं से ही होता है। कसायपाहुड में चाहे स्पष्टत: गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख न हो, किन्तु उसमें सास्वादन आदि कुछ गुणस्थानों को छोड़कर अधिकांश गुणस्थानों का निर्देश उपलब्ध है। षट्खण्डागम के प्रारम्भ में भी चाहे 'गुणस्थान' शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु उसके 'सत्प्ररूपणा' नामक प्रथम खण्ड की सम्पूर्ण विवेचना का आधार चौदह गुणस्थानों की अवधारणा ही है। प्रारम्भ में उसमें गुणस्थानों को जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है, किन्तु आगे चलकर उसमें गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग भी मिलता है।
यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि विभिन्न गुणस्थानों की व्याख्या के लिये उनमें होने वाले कर्मों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, क्षय, उपशम आदि की विभिन्न अवस्थाओं पर विचार करना आवश्यक है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि में और श्वेताम्बर परम्परा में पाँच कर्मग्रन्थों में से दूसरे कर्मग्रन्थ – 'कर्मस्तव' में इन चौदह गुणस्थानों के प्रसंग में ही कर्मों के बंध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विचार किया गया है। कर्मस्तव नामक यह दूसरा कर्मग्रन्थ तो वस्तुत: इसी चर्चा से भरा पड़ा है कि किस गुणस्थान में कितनी
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