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________________ १०० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन-विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन ( दृष्टिकोण ) विशुद्धि एवं चारित्र ( आचार ) विशुद्धि से युक्त होता है। इन अवस्थाओं में सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है लेकिन उनके बीज ( राग-द्वेष एवं मोह ) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है। जैन परम्परा की इस बात को बौद्ध परम्परा यह कहकर प्रकट करती है कि स्रोतापन्न अवस्था में कामधातु ( वासनाएँ ) तो समाप्त हो जाती हैं, लेकिन रूपधातु ( आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह ) शेष रहती है। २. सकृदागामी भूमि - इस भमि में साधना का मुख्य लक्ष्य 'आस्त्रवक्षय' ही होता है। सकृदागामी भूमि के अन्तिम चरण में साधक पूर्ण रूप से कामराग ( वासनाएँ ) और प्रतिध ( द्वेष ) को समाप्त कर देता है और अनागामी भूमि की दिशा में आगे बढ़ जाता है। सकृदागामी भूमि की तुलना जैन-दर्शन के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैनधर्म क्षीण-मोह गुणस्थान और बौद्ध विचार अनागामी भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है। जैनधर्म के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्धधर्म के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधना-काल में मृत्यु को प्राप्त साधक एक बार ही पुन: संसार में जन्म-ग्रहण करता है। दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीणमोह गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। ३. अनागामी भूमि - जब साधक प्रथम स्रोतापन्न भूमि में सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलव्रत परामर्श इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामी भूमि में कामराग और प्रतिध इन दो संयोजनों को, इस प्रकार पाँच भू-भागीय संयोजनों को नष्ट कर देता है, तब वह अनागामी भूमि को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ता है तो मृत्यु के प्राप्त होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण प्राप्त करता है। वैसे साधनात्मक दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पाँच उढ्डभागीय संयोजन - १. रूपराग, २. अरूप-राग, ३. मान, ४. औद्धत्य और ५. अविद्या के नाश का प्रयास Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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