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________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०१ करे। जब साधक इन पाँचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। जो साधक इस अग्रिम भूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पाँच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं। उन्हें पुन: इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। अनागामी भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है। लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत् भूमि में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है। साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएँ इस भूमि के अन्तर्गत आती हैं। ४. अर्हतावस्था – जब साधक ( भिक्षु ) उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है। सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की सेवा के लिये क्रियाएँ करता है। समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दु:खों का प्रहाण हो जाता है। वस्तुत: यह जीवन्मुक्ति की अवस्था है। जैन-विचारणा में इस अर्हतावस्था की तुलना सयोगीकेवली गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के सम्बन्ध में काफी निकट हैं। महायान और आध्यात्मिक विकास ___ महायान सम्प्रदाय में दशभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्नलिखित दस भूमियाँ ( अवस्थाएँ ) मानी गयी हैं - १. प्रमुदिता, २. विमला, ३. प्रभाकरी, ४. अर्चिष्मती, ५. सुदुर्जया, ६. अभिमुक्ति, ७. दूरंगमा, ८. अचला, ९. साधमति और १०. धर्ममेधा। हीनयान से महायान की ओर संक्रमण-काल में लिखे गए महावस्तु नामक ग्रन्थ में १. दुरारोहा, २. बद्धमान, ३. पुष्पमण्डिता, ४. रुचिरा, ५. चित्त-विस्तार, ६. रूपमति, ७. दुर्जया, ८. जन्मनिदेश, ९. यौवराज और १०. अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं। यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है, तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन मिलता है। असंग के महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिमुक्ति चर्याभूमि कहा गया है और अन्तिम बुद्धभूमि या धर्ममेघा का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया गया है। इसी प्रकार लंकावतारसूत्र में धर्ममेघा और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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