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________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण तथागत भूमियों ( बुद्धभूमि ) को अलग-अलग माना गया है। १. अधिमुक्तचर्या भूमि यों तो अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है, लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्तचर्याभूमि का विवेचन करते हैं, तत्पश्चात् प्रभुदिता भूमि का अधिमुक्तचर्याभूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय ( यथार्थ ज्ञान ) होता है। यह दृष्टि-विशुद्धि की अवस्था है। इस भूमि की तुलना जैन विचारधारा में चतुर्थ अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है। इसे बोधिप्रणधिचित्त की अवस्था कहा जा सकता है । बोधिसत्व इस भूमि में दान - पारमिता का अभ्यास करता है । १०२ २. प्रमुदिता इसमें अधिशील शिक्षा होती है। यह शीलविशुद्धि के प्रयास की अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधना करता है। इसे बोधि प्रस्थानचित्त की अवस्था कहा जा सकता है। बोधिप्रणिधिचित्त मार्गज्ञान है, लेकिन बोधि प्रस्थानचित्त मार्ग में गमन की प्रक्रिया है। जैन परम्परा में इस भूमि की तुलना पंचम एवं षष्ठ विरताविरत एवं सर्वविरत सम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से की जा सकती है। इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाशव्यवस्था अर्थात् यह ज्ञान कि प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं होता । बोधिसत्व इस भूमि में शील- पारमिता का अभ्यास करता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता । पूर्णशीलविशुद्धि की अवस्था में वह अग्रिम विमला विहार- भूमि में प्रविष्ट हो जाता है। ३. विमला इस अवस्था में बोधिसत्व ( साधक ) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है। दुःखशीलता के मनोविकास का मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसलिये इसे विमला कहते हैं। यह आचरण की पूर्ण शुद्धि की अवस्था है। इस भूमि में बोधिसत्व शान्ति - पारमिता का अभ्यास करता है । यह अधिचित्त शिक्षा है। इस भूमि का लक्षण है। ध्यान - प्राप्ति, इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है। जैन विचारणा में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है। - ― ४. प्रभाकरी इस भूमि में अवस्थित साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का अवभास या साक्षात्कार प्राप्त होता है एवं साधक बोधिपक्षीय धर्मों की परिणामना लोकहित के लिये संसार में करता है अर्थात् वह बुद्ध का ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में फैलाता है, इसलिये इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है। यह भी जैनों के अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के समकक्ष है। इस भूमि में क्लेशावरण और श्रेयावरण का दाह ५. अर्चिष्मती Jain Education International ― ――― For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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