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________________ ६२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण में शत्रु - सैनिकों को पूर्णत: विनष्ट नहीं किया जाता, मात्र उनके अवरोध को समाप्त कर दिया जाता है, वे तितर-बितर कर दिये जाते हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में क्रमशः क्षायिक श्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। क्षायिक श्रेणी में मोह, कषाय एवं वासनाओं को निर्मूल करते हुए आगे बढ़ा जाता है, जबकि उपशम श्रेणी में उनको निर्मूल नहीं किया जाता, मात्र उन्हें दमित कर दिया जाता है। लेकिन यह दूसरे प्रकार की विजय यात्रा अहितकर ही सिद्ध होती है। वे वासनारूपी शत्रु - सैनिक समय पाकर एकत्र हो उस विजेता पर उस समय हमला बोल देते हैं जबकि विजेता विजय के बाद की विश्रान्ति की दशा में होता है और उसे पराजित कर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं । यह ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशान्त मोह की अवस्था है, जहाँ से साधक पुनः पतित हो जाता है। लेकिन जो विजेता शत्रु सेना को निर्मूल करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी विजय के बाद की विश्रान्ति उसके अग्रिम विकास का कारण बनती है। इस अवस्था को क्षीण-मोह नामक बारहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। इस प्रकार सातवें गुणस्थान के बाद साधक की विजय यात्रा दो रूपों में चलती है। - ८. अपूर्वकरण यह आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हलका हो जाने के कारण आत्मा एक विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करती है । ऐसी अनुभूति पूर्व में कभी नहीं हुई होती है, अत: यह अपूर्व कही जाती है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है। मात्र बीजरूप ( संज्वलन ) माया और लोभ ही शेष रहते हैं। शेष अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषायों की तीनों चौकड़ियाँ तथा संज्वलन की चौकड़ी में से भी संज्वलन - क्रोध एवं संज्वलन - मान भी या तो क्षीण हो जाते हैं अथवा दमित (उपशमित) कर दिये जाते हैं और इस प्रकार साधक वासनाओं से काफी ऊपर उठ जाता है। अतः न केवल वह एक आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करता है, वरन् उसमें एक प्रकार की आत्मशक्ति का प्रकटन भी हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और तीव्रता को कम कर सकता है और साथ ही उसके नवीन कर्मों का बंध भी अल्पकालिक एवं अल्पमात्रा में ही होता है। इस अवसर का लाभ उठाकर इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्म-वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही फलभोग किया जा सके। साथ ही वह अशुभ फल देने वाली कर्म-प्रकृतियों को शुभ फल देने वाली कर्म - प्रकृतियों में परिवर्तित For Private & Personal Use Only Jain Education International - www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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