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गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा
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इस अवस्था में आत्म-कल्याण के साथ लोक-कल्याण की भावना और तदनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पदगलासक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्व-स्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करती है, लेकिन देह-भाव या प्रमाद अवरोध करता है, अत: इस अवस्था में पूर्ण आत्मजागृति सम्भव नहीं होती है, इसलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह उसमें सफल हो जाता है तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान
आत्म-साधना में सजग वे साधक इस वर्ग में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीतभाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर नियन्त्रण कर लेते हैं। यह पूर्ण सजगता की स्थिति है। साधक का ध्यान अपने लक्ष्य पर केन्द्रित रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती हैं। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनट से अधिक देहातीतभाव में नहीं रह पाता। दैहिक उपाधियाँ उसे विचलित कर देती हैं, अत: इस गुणस्थान में साधक का निवास अल्पकालिक ही होता है। इसके पश्चात् भी यदि वह देहातीतभाव में रहता है तो विकास की अग्रिम श्रेणियों की
ओर प्रस्थान कर जाता है या देहभाव की जागृति होने पर लौटकर पुन: नीचे के छठे दर्जे में चला जाता है। अप्रमत्त-संयत गुणस्थान में साधक समस्त प्रमाद के अवसरों ( जिनकी संख्या ३७,५०० मानी गयी है- ) से बचता है। '
सातवें गुणस्थान में आत्मा अनैतिक आचरण की सम्भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिये शक्ति-संचय करती है। यह गणस्थान नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाले संघर्ष की पूर्व तैयारी का स्थान है। साधक अनैतिक जीवन के कारणों की शत्रु-सेना के सम्मुख युद्धभूमि में पूरी सावधानी एवं जागरुकता के साथ डट जाता है। अग्रिम गुणस्थान उसी संघर्ष की अवस्था के द्योतक हैं। आठवाँ गुणस्थान संघर्ष के उस रूप को सूचित करता है जिसमें प्रबल शक्ति के साथ शत्रु सेना के राग-द्वेष आदि सेना प्रमुखों के साथ ही साथ वासनारूपी शत्रु-सेना को भी बहुत कुछ जीत लिया जाता है। नवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रु-सेना पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है, फिर भी उनका राजा ( सूक्ष्म लोभ ) छद्मरूप से बच निकलता है। दसवें गणस्थान में उस पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यह विजय-यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह जिसमें शत्रु-सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह जिसमें शत्रु-सेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है। दूसरी अवस्था
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