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________________ ४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण था। इससे यह भी प्रतिफलित होता है कि जैन परम्परा में लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर पाँचवीं शताब्दी के बीच यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया है। षट्खण्डागम, समवायांग दोनों ही इसके लिये गुणस्थान शब्द का प्रयोग न कर क्रमश: जीवस्थान और जीवसमास शब्द का प्रयोग करते हैं - यह बात हम पूर्व में भी बता चुके हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सबसे पहले गुणस्थान शब्द का प्रयोग आवश्यकचूर्णि में किया गया है, उसके पश्चात् सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और हरिभद्र की आवश्यकनियुक्ति की टीका के काल तक अर्थात् ८वीं शती के पहले उस परम्परा में इस सिद्धान्त को गुणस्थान के नाम से अभिहित किया जाने लगा था। जैसा कि हम देख चुके हैं - दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम षट्खण्डागम, मूलाचार और भगवती-आराधना ( सभी लगभग पाँचवीं-छठी शती ) में गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध होता है। कसायपाहुड में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों की उपस्थिति तो देखी जाती है, परन्तु उसमें चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित अवधारणा अनुपस्थित है। षटखण्डागम में इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु इन्हें जीवसमास कहा गया। मूलाचार में इनके लिये गण नाम भी है और चौदह अवस्थाओं का उल्लेख भी है। भगवती-आराधना में यद्यपि एक साथ चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है किन्तु ध्यान के प्रसङ्ग में ७वें से १४ वें गुणस्थान तक की, मूलाचार की अपेक्षा भी, विस्तृत चर्चा हुई है। उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान ( गुणट्ठाण ) का विस्तृत विवरण मिलता है। इन सभी का ससन्दर्भ उल्लेख मेरे द्वारा पुस्तक के प्रारम्भ में किया जा चुका है। पूज्यपाद देवनन्दी ने तो सर्वार्थसिद्धि ( सत्प्ररूपणा आदि ) में मार्गणाओं की चर्चा करते हुए प्रत्येक मार्गणा के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवरण दिया है। १७ आचार्य कुन्दकुन्द की यह विशेषता है कि उन्होंने नियमसार, समयसार आदि में 'मग्गणाठाण, गुणठाण और जीवठाण' का भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है।१८ इस प्रकार जीवठाण या जीवसमास शब्द क्रमश: समवायाङ्ग एवं षट्खण्डागम तक गुणस्थान के लिये प्रयुक्त होने लगा। कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में जीवस्थान ( जीवठाण ) का तात्पर्य जीवों के जन्म ग्रहण करने की विविध योनियों से है। इसका एक फलितार्थ यह है कि भगवती-आराधना, मूलाचार तथा कुन्दकुन्द के काल तक जीवस्थान और गुणस्थान दोनों की अलग-अलग और स्पष्ट धारणाएँ बन चुकी थीं और दोनों के विवेच्य विषय भी अलग हो गए थे। जीवस्थान या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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