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________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आगे बढ़ना होता है। जो साधक उपशम विधि से वासनाओं एवं कषायों को दबाकर आगे बढ़ते हैं वे क्रमशः विकास करते हुए इस ग्यारहवें उपशान्त मोह नामक श्रेणी में आते हैं । उपशम अथवा दमन के द्वारा आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों का पूर्ण निरोध हो जाता है। लेकिन उपशम या निरोध साधना का सच्चा मार्ग नहीं है। उसमें स्थायित्व नहीं होता । दुष्प्रवृत्तियाँ यदि नष्ट नहीं हुई हैं तो उन्हें कितना ही दबाकर आगे बढ़ा जाय उनके प्रकटन को अधिक समय के लिये रोका नहीं जा सकता, वरन् जैसे-जैसे दमन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उनके अधिक वेग से विस्फोटित होने की सम्भावना बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जो साधक उपशम या दमन मार्ग से आध्यात्मिक विकास करता है उसके पतन की सम्भावना निश्चित होती है। यह श्रेणी वासनाओं के दमन की पराकाष्ठा है, अतः उपशम या निरोध-मार्ग का साधक स्वल्पकाल ( ४८ मिनट ) तक इस श्रेणी में रहकर निरुद्ध वासनाओं एवं कषायों के पुनः प्रकटन के फलस्वरूप नीचे गिर जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र गोम्मटसार में लिखते हैं कि जिस प्रकार शरद् ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्ममल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्म शुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं । १० अथवा जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि वायु योग से राख के उड़ जाने पर पुनः प्रज्वलित होकर अपना काम करने लगती है, उसी प्रकार दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित हो जाती हैं और साधक पुनः पतन की ओर चला जाता है। इस सम्बन्ध में गीता और जैनाचारदर्शन का मतैक्य है । दमन अथवा निरोध एक सीमा के पश्चात् अपना मूल्य खो देते हैं। गीता कहती है दमन या निरोध से विषयों का निर्वतन तो हो जाता है, लेकिन विषयों का रस अर्थात् वैषयिक वृत्ति का निर्वतन नहीं होता । वस्तुत: उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निर्मूल नहीं होते हैं, संस्कारों के सर्वथा निर्मूल न होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है। इसलिये कहा गया है कि उपशम श्रेणी या दमन के द्वारा आध्यात्मिक विकास करने वाला साधक साधना के उच्च स्तर पर पहुँचकर भी पतित हो जाता है । यह ग्यारहवाँ गुणस्थान पुनः पतन का है । ६६ - १२. क्षीणमोह गुणस्थान जो साधक उपशम या दमन विधि से आगे बढ़ते हैं वे ग्यारहवें For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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