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गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा
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गुणस्थान तक पहुँच कर पुन: पतित हो जाते हैं, लेकिन जो साधक क्षायिक विधि अर्थात् वासनाओं एवं कषायों का क्षय करते हुए, उन्हें निर्मूल करते हुए विकास करते हैं, वे दसवें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे बारहवें गुणस्थान में आ जाते हैं। इस वर्ग में आने वाला साधक मोह-कर्म की अट्ठाइस प्रवृत्तियों को पूर्णरूपेण समाप्त कर देता है और इसी कारण इस गणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। यहाँ पहुँचने पर साधक के लिये कोई नैतिक कर्तव्य शेष नहीं रहता है। उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होने वाला संघर्ष सदैव के लिये समाप्त हो जाता है, क्योंकि संघर्ष के कारणरूप कोई भी वासना शेष नहीं रहती। उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णत: मुक्त हो जाता है, क्योंकि राग-द्वेष के कारण मोह समाप्त हो जाता है। इस नैतिक पूर्णता की अवस्था को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। जैन विचारणा के अनुसार मोहकर्म अष्टकर्मों में प्रधान है। वह बन्धन में डालने वाले कर्मों की सेना का प्रधान सेनापति है। इसके परास्त हो जाने पर शेष कर्म भी भागने लग जाते हैं। मोह कर्म के नष्ट हो जाने के पश्चात् थोड़े ही समय में दर्शनावरण, ज्ञानावरण, अन्तराय ये तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं। क्षायिक मार्ग पर आरूढ़ साधक दसवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश को नष्ट कर इस बारहवें गुणस्थान में आते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त जितने अल्पकाल तक इसमें स्थित रहते हुए इसके अन्तिम चरण में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और. अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं।
विकास की इस श्रेणी में पतन का कोई भय ही नहीं रहता। व्यक्ति विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। यह नैतिक पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो आध्यात्मिक पूर्णता भी उपलब्ध हो जाती है। विकास की शेष दो श्रेणियाँ उसी आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि से सम्बन्धित हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन नैतिकता में आध्यात्मिकता, धर्म और नैतिकता तीनों अलग-अलग तथ्य न होकर एक दूसरे से संयोजित हैं। नैतिकता क्रिया है, आचरण है और आध्यात्मिकता उसकी उपलब्धि या . फल है। विकास की यह अवस्था नैतिकता के जगत् से आध्यात्मिकता के जगत् में संक्रमित होने की है। यहाँ साधक नैतिकता की सीमा का अतिक्रमण कर विशुद्ध आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश पा जाता है।
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