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दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज
गया है जिनसे इस सिद्धान्त का विकास हुआ है । इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। यद्यपि यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त के इन मूल बीजों को संगृहीत करने की यह प्रवृत्ति दिगम्बर परम्परा में आगे गोम्मटसार के काल तक चलती रही है । षट्खण्डागम चूलिका में उद्धृत ये दोनों गाथाएँ गोम्मटसार के जीवकाण्ड में गाथा क्रमांक ६६-६७ में उपलब्ध होती हैं । ये गाथाएँ निम्नलिखित हैं
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सम्मत्तप्पत्तीये, सावयविरदे अतकम् । दंसणमोहक्खवगे, कसाय उवसामगे य उवसंते ।। खवगे य खीणमोहे, जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा । तविवरीया काला, संखेज्ज गुणक्कमा होंति ।। गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ६६-६७. इनमें दूसरी गाथा के दूसरे और चतुर्थ चरण में कुछ पाठभेद को छोड़कर सामान्यतया ये गाथाएँ षट्खण्डागम में उद्धृत गाथाओं के समान ही हैं। मेरी दृष्टि में ये गाथाएँ षट्खण्डागम की चूलिका से ही उसमें ली गई हैं। क्योंकि इन गाथाओं के टीकाकार भी षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों के अनुरूप ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं, जबकि मूल में आचारांगनिर्युक्ति एवं तत्त्वार्थसूत्र के समान दस अवस्थाएँ ही हैं। पुनः ये गाथाएँ गोम्मटसार में चौदह गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा के ठीक पश्चात् आई हैं और इनके बाद सिद्धों की चर्चा है। विषय की दृष्टि से प्रसंग होते हुए वहाँ ये गाथाएँ अनावश्यक ही प्रतीत होती हैं क्योंकि अयोगी केवली तक की चर्चा के बाद इन्हें दिया गया है। इनके देने का एकमात्र प्रयोजन इन गाथाओं के माध्यम से प्राचीन परम्परा को संरक्षित करना था। साथ ही यह निश्चित है कि ये गाथाएँ न तो षट्खण्डागम के कर्त्ता की अपनी रचनाएँ हैं और न गोम्मटसार के कर्ता की। गोम्मटसार के कर्ता ने इन्हें षट्खण्डागम से, जो मूलतः यापनीय कृति है, लिया है। यापनीयों में नियुक्तियों के अध्ययन की परम्परा थी यह बात मूलाचार से भी सिद्ध होती है। अतः सम्भावना यही है कि षट्खण्डागमकार ने इन्हें नियुक्ति से लिया हो । आचारांगनिर्युक्ति में भी ये दोनों गाथाएँ कहीं से अवतरित ही प्रतीत होती हैं। हो सकता है कि ये गाथाएँ पूर्व साहित्य या कर्म साहित्य के किसी प्राचीन ग्रन्थ का अंश रही हों और वहीं से नियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम में गई हों। चूँकि निर्युक्ति साहित्य एवं तत्त्वार्थ में गुणस्थान सिद्धान्त पूर्णतः अनुपस्थित है और रचनाकाल की दृष्टि से भी ये प्राचीन हैं, अतः कर्म- निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं अथवा गुणश्रेणियों का चित्रण करने वाली इन गाथाओं का अवतरण
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