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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
'सयोगी केवली' शब्द का प्रयोग होने लगा था। साथ ही जहाँ मूल गाथा में मात्र दस अवस्थाओं का चित्रण है, षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों में 'योगनिरोधकेवलीसंयत' नामक ग्यारहवाँ क्रम भी दिया गया है। यही आगे गुणस्थान सिद्धान्त में अयोगीकेवली बन गया।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मूलगाथा की अपेक्षा व्याख्यासूत्रों में विकास और अर्थ की स्पष्टता है। गुणस्थान सिद्धान्त के निर्माण की दृष्टि से यदि हम देखें तो षट्खण्डागम के व्याख्यासूत्रों के इन ग्यारह स्थानों में मिथ्यात्व, सास्वादन
और मिश्र ये तीन स्थान और जुड़कर चौदह गुणस्थानों का निर्माण हुआ है। विशेष रूप से ध्यान देने की बात यह है कि इन अवस्थाओं में भी अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक और कषायउपशामक के स्थान पर गुणस्थान सिद्धान्त में अप्रमत्तसंयत, अपर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन नए नाम आये हैं और उपशान्त कषाय और क्षपक इन दो के स्थान पर सूक्ष्मसम्पराय और उपशान्तमोह ये दो अवस्थाएँ बनी हैं। इस प्रकार से षट्खण्डागम में उद्धृत मूल गाथाओं में वर्णित दस और व्याख्यासूत्रों में वर्णित ग्यारह अवस्थाएँ ही आगे चलकर चौदह गुणस्थानों का रूप लेती हैं। गुणस्थान सिद्धान्त की उपर्युक्त दस अथवा ग्यारह अवस्थाओं की एक सबसे महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि इन अवस्थाओं में पतन की कोई कल्पना नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में सास्वादन और मिश्र गुणस्थान पतन की चर्चा के परिणामस्वरूप ही अस्तित्व में आये हैं। इसी प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त और कर्म-निर्जरा के आधार पर विकसित इन दस अवस्थाओं में दूसरा महत्त्वपूर्ण अन्तर यह है कि इन दस अवस्थाओं के चित्रण में दर्शनमोह और चारित्रमोह के सन्दर्भ में पहले उपशम और बाद में क्षय की अवधारणा स्वीकृत रही है। उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी से अलग-अलग आरोहण की बात इनमें नहीं है। ये अवस्थाएँ इस तथ्य की सूचक हैं कि पहले दर्शनमोह और चारित्रमोह का उपशम होता है और उसके बाद ही क्षय होता है। सीधे क्षायिक श्रेणी से आध्यात्मिक विकास करने की चर्चा इन दस अथवा ग्यारह अवस्थाओं में नहीं है। साथ ही यह भी माना गया है कि उपशमक सम्यक् दर्शन और उपशमक सम्यक् चारित्र के बाद ही क्षायिक सम्यक् दर्शन और क्षायिक चारित्र का विकास होता है। इन अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त के प्रकाश में अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का विकास इन्हीं अवस्थाओं या गुणश्रेणियों से हुआ है।
यद्यपि षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त विकसित रूप में उपस्थित हैं, फिर भी उसमें उन बीजों को भी चूलिकासूत्रों के रूप में समाहित कर लिया
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