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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
विरत
जिन
आचारांगनियुक्ति एवं षट्खण्डागम । तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित दस
चूलिकागाथा में वर्णित दस अवस्थाएँ अवस्थाएँ (१) . सम्यक्त्व उत्पत्ति
सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक
श्रावक (३) विरत (४) अनन्तवियोजक ( अणंतकम्मंसे ) अनन्तवियोजक (५) दर्शनमोहक्षपक
दर्शनमोहक्षपक (६) कसाय उपशमक ( ज्ञातव्य है कि उपशमक
आचारांगनियुक्ति में 'कसाय'
शब्द नहीं है ) (७) उपशान्त
उपशान्तमोह (८) क्षपक
क्षपक (९) क्षीणमोह
क्षीणमोह (१०) जिन
इस प्रकार आचारांगनियुक्ति की एवं षट्खण्डागम चूलिका में उद्धृत उपर्युक्त गाथाओं में वर्णित दस अवस्थाओं की तत्त्वार्थसूत्र से न केवल भावगत अपितु शब्दगत भी समानता है।
षट्खण्डागम में इन दोनों गाथाओं की व्याख्या के रूप में जो सूत्र बने हैं उनमें शब्द और भाव-स्पष्टता की दृष्टि से भी एक विकास देखा जाता है। साथ ही जहाँ उपरोक्त गाथाओं में दस अवस्थाओं का मूल चित्रण है वहाँ षट्खण्डागम के व्याख्या सूत्रों में ग्यारह अवस्थाओं का चित्रण है, जो स्वत: एक विकास का सूचक है। उसमें वर्णित ग्यारह अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं -
(१) दर्शनमोह उपशमक, (२) संयतासंयत, (३) अधःप्रवृत्त ( यथाप्रवृत्त - ज्ञातव्य है कि 'अधापवत्त' का संस्कृत या हिन्दी रूपान्तर यथाप्रवृत्त है, अध:प्रवृत्त नहीं ), (४) अनन्तानुबंधी विसंयोजक, (५) दर्शनमोहक्षपक, (६) कषायउपशमक, (७) उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ, (८) कषायक्षपक, (९) क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, (१०) अधःप्रवृत्त एवं (११) योगनिरोधकेवलीसंयत।
इनकी पारस्परिक तुलना में हम पाते हैं आचारांगनियुक्ति से तत्त्वार्थ की यह विशेषता है कि उसमें 'अणंतकम्मंसे' शब्द के स्थान पर 'अनन्तवियोजक' शब्द है जो अधिक स्पष्ट है। पुन: जहाँ आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में छठे
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