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श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज
संमत्त - देस - संपुन्न-विरइ-उप्पत्ति-अण - विसंजोगे । दंसणखवणे मोहस्स समणे उवसंत खवगे य ।। खीणाइतिगे अस्संखगणियगणसेढिदलिय जहकमसो । सम्मत्ताईणेक्कारसण्ह कालो उ संखसे ।।
- पंचसंग्रह बन्धद्वार, उदयनिरूपण, गाथा ११४-११५. यहाँ भी क्वचित् पाठभेद को छोड़कर ये गाथाएँ समान ही हैं। नामों की दृष्टि से यहाँ १. सम्यक्त्व, २. देशविरत, ३. सर्वविरत, ४. अनन्तानुबन्धी विसंयोजक ( अणविसंजोगे ), ५. दर्शनमोहक्षपक, ६. ( कषाय शमक ) उपशान्त, ७. क्षपक, ८.-१०. क्षीण, आदि-त्रिक् अर्थात् क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली।
इन गाथाओं की विशेषता यह है कि इनके अन्त में सम्यक्त्व आदि एकादश गुणश्रेणियों का उल्लेख है। ये एकादश गुणश्रेणियाँ केवली के सयोगी और अयोगी ऐसे दो विभाग करने पर ही बनती हैं। सम्भवतः पाँचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात् गणस्थान सिद्धान्त में सयोगी और अयोगी अवधारणा के आने पर जिन नामक दसवीं अवस्था के विभाजन से गुणश्रेणी की संख्या १० से बढ़कर ११ हो गई और वह दोनों ही परम्पराओं में संरक्षित होती रही।
श्वेताम्बर परम्परा में इन ११ गुणश्रेणियों का हमें अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि विरचित अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ के ८२वीं गाथा में प्राप्त होता है जो कि निम्न रूप में है -
सम्मदरससव्वविरई उ अणविसंजोयदंसखवगे य । मोहसमसंतखवगे खीणसजोगियर गुणसेढी ।।
प्रस्तुत गाथा की विशेषता यह है कि इसमें दो गाथाओं के विवरण को संक्षिप्त सांकेतिक शब्दों के आधार पर एक ही गाथा में समाहित कर दिया गया है, जैसे सम्यग्दृष्टि के लिये सम्म, देशव्रती के लिये दर, अनन्त-विसंयोजक के लिये अणविसंजोय, दर्शन मोहक्षपक के लिये दंसखवगे आदि इस प्रकार के संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार उपशम के लिये केवल शम, उपशान्त के लिये केवल सन्त और क्षीणमोह के लिये केवल खीण शब्द का प्रयोग किया गया है किन्तु जिनके स्थान पर सजोगी और इतर ऐसी दो अवस्थाओं का संकेत किया गया है।
देवेन्द्रसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने इस गाथा की स्वोपज्ञ टीका में इन संक्षिप्त शब्दों के अर्थ को स्पष्ट करने के साथ-साथ इन एकादश गुण
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