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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
श्रेणियों का न केवल स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है अपितु इन गुणश्रेणियों की गुणस्थान की अवधारणा से निकटता भी सूचित की है। साथ ही इसके भावार्थ को भी टीका में स्पष्ट किया है। इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त के बीज रूप इन गुणश्रेणियों का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में आचारांगनिर्यक्ति से लेकर नवीन कर्म ग्रन्थों तक अर्थात् ई० सन् की दूसरी शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक निरन्तर रूप से मिलता है। इन गुणश्रेणियों का गुणस्थान सिद्धान्त से क्या सम्बन्ध है यह भी देवेन्द्रसरि की टीका से स्पष्ट हो जाता है और इससे हमारी इस अवधारणा की पुष्टि होती है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार कर्मनिर्जरा के आधार पर सूचित करने वाली ये गुणश्रेणियाँ ही हैं।
सन्दर्भ १. वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे य ववहारे ।।
- दशाश्रुतस्कधनियुक्ति, गाथा १. २. देखें - आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७७४-७८३. ३. थेरस्स णं अज्जफग्गुमित्तस्स गोयमसगुत्तस्स अज्जधणगिरी थेरे अंतेवासी
वासिठ्ठसगुत्ते थेरस्स णं अज्जघणगिरिरस वासिठ्ठसगुत्तस्स अज्जसिवभूईथेरे अंतेवासी कुच्छसगुत्ते। थेरस्स णं अज्जसिवभूइस्स कुच्छसगुत्तस्स अज्जभद्दे थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। थेरस्स णं अज्जभद्दस्स काग्रवगुत्तस्स अज्जनक्खत्ते थेरे अंतेवासी कासवगुत्ते। - कल्पसूत्र, प्रका० श्री हंस विजय जैन, फ्री लायब्रेरी,
लुणसावाडा, अहमदाबाद, पृ० १९५. ४. देखें - आवश्यकनियुक्ति ( हरिभद्रीय टीका ), भाग २, पृ० १०७. ५. सम्मत्तुप्पा सावय विरए संजोयणाविणासे य ।
दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगुवसंते ।। खवगे य खीणमोहे जिणे य दुविहे असंखगुणा । उदयो तव्विवरीओ कालो संखेज्जगुणसेढी ।।
- कर्म-प्रकृति ( उदयकरण ), गाथा ३९४-३९५. ६. सम्मदरसव्वविरई, उ अणविसंजोअदंसखवगे अ । मोहसमसंतखवगे, खीणसजोगीअरगुणसेढी ।। - शतकनामा, पंचमकर्मग्रन्थ (श्रीलघुप्रकरणसंग्रहः), शा० नगीनदास
करमचंद, मु० पाटण हाल, मुम्बई, सन् १९२५.
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