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चतुर्थ अध्याय दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान
सिद्धान्त के बीज कार्तिकेयानुप्रेक्षा के परिप्रेक्ष्य में
कार्तिकेयानुप्रेक्षा का मूलभूत विषय तो जैन परम्परा में सुप्रचलित बारह अनुप्रेक्षाओं अथवा बारह भावनाओं का विवेचन करना है किन्तु उसमें इस विवेचन के अन्तर्गत यथाप्रसंग जैन परम्परा के, धर्मदर्शन के सभी पक्षों को समाहित कर लिया गया है। जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र सात तत्त्वों को आधार बनाकर जैन परम्परा के सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान की चर्चा करता है, उसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी जैन तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा, सृष्टिस्वरूप, मुनि-आचार, श्रावक-आचार आदि सभी पक्षों की चर्चा है।
हमें यह देखकर आश्चर्य होता है कि उसमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा नहीं है और न उपशम श्रेणी और न क्षायिक श्रेणी के अलग-अलग विकास की बात कही गयी है। गुणस्थान सिद्धान्त के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण आदि जो विशिष्ट नाम हैं, उसका भी उनमें कोई उल्लेख नहीं है। यदि संक्षेप में कहें तो उसमें गुणस्थान की अवधारणा का अभाव हैं किन्तु जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में गुणस्थान की अवधारणा का अभाव होते हुए भी कर्मनिर्जरा के आधार पर सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत आदि दस अवस्थाओं का चित्रण है उसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में भी निर्जरा-अनुप्रेक्षा के अन्तर्गत कर्मनिर्जरा के आधार पर निम्नलिखित बारह अवस्थाओं का चित्रण हुआ है। ---
१. मिथ्यात्वी, २. सम्यग्दृष्टि ( सदृष्टि ), ३. अणुव्रतधारी, ४. महाव्रती, ५. प्रथमकषायचतुष्कवियोजक, ६. क्षपकशील, ७. दर्शनमोहत्रिक (क्षीण), ८. कषायचतुष्क उपशमक, ९. क्षपक, १०. क्षीणमोह, ११. सयोगीनाथ और १२. अयोगीनाथ।
उपर्युक्त बारह अवस्थाओं में एक-दो नामों में कुछ अन्तर को छोड़कर दस वही हैं जिनका उल्लेख हमें आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में मिलता है। इसमें दो नाम जो अधिक हैं - वे मिथ्यादृष्टि और अयोगी केवली हैं। इनमें भी
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