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________________ २८ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण मिथ्यादृष्टि तो तुलना की दृष्टि से दिया गया है, अत: ग्यारह अवस्थाएँ या गुणश्रेणियाँ ही शेष रहती हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि यह ग्रन्थ आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के पश्चात् का है। आगे हम देखेंगे कि षट्खण्डागम के वेदना-खण्ड की चूलिका में जो गाथाएँ दी गई हैं, उनमें आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के अनुरूप दस अवस्थाओं का ही चित्रण है किन्तु चूलिका में उक्त गाथाओं को उद्धृत करके जो व्याख्यासूत्र बनाए गए हैं उनमें जिन के सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं/गुणश्रेणियों का चित्रण हुआ है। धवलाटीका में तो स्पष्ट रूप से ग्यारह की संख्या का उल्लेख भी है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इन ग्यारह अवस्थाओं के साथ मिथ्यात्व का भी स्पष्ट उल्लेख होने से कुल बारह अवस्थाएँ हो जाती हैं। यद्यपि यहाँ मिथ्यात्व शब्द का प्रयोग कर्म-निर्जरा की सापेक्षिक अधिकता को बताने की दृष्टि से ही हुआ है, उसे गुणश्रेणी मानना ग्रन्थकार को इष्ट नहीं है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और षटखण्डागम में अवतरित चूलिका गाथाओं में जहाँ श्रावक और विरत नाम आए हैं वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में क्रमश: उनके लिये अणुव्रतधारी और ज्ञानी, महाव्रती ऐसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। 'अणंतकम्मसे' एवं अनन्तवियोजक शब्द के स्थान पर इसमें प्रथमकषायचतुष्कवियोजक शब्द का प्रयोग हुआ है। यद्यपि इस शब्द वैभिन्न्य से अर्थ में इसे एक विकास तो माना जा सकता है यदि हम क्षपणशील और दर्शनमोहत्रिक ( क्षीण ) इन दोनों को अलगअलग करते हैं तो यहाँ एक अवस्था बढ़ जाती है क्योंकि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में दर्शनमोहक्षपक नामक एक ही अवस्था का चित्रण नहीं है। किन्तु यदि हम ‘तह य खवयसीलो य दंसणमोह तियस्स य' इस सम्पूर्ण पद को समास पद मानकर एक मानते हैं तो इसका अर्थ होगा - दर्शनमोहत्रिक क्षपणकशील और ऐसी स्थिति में इसे दर्शनमोहक्षपक से तुलनीय माना जा सकता है किन्तु आगे चलकर जहाँ आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में कषाय उपशमक, उपशान्तकषाय, क्षपक और क्षीणमोह ऐसी चार अवस्थाओं का चित्रण है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उपशमक, क्षपक और क्षीणमोह ऐसी तीन ही अवस्थाओं का चित्रण मिलता है। इसमें उपशान्तमोह का कहीं कोई उल्लेख नहीं है। अत: यहाँ एक अवस्था कम हो जाती है अर्थात् उसमें उपशमक, क्षपक और क्षीणमोह ये तीन ही अवस्थाएँ शेष रहती हैं। अन्त में आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थ आदि में जहाँ जिन का उल्लेख हुआ है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कप्तायपाहुड और षट्खण्डागम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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