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दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज
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वेदनाखण्ड की चूलिका के व्याख्यासूत्रों के अनुरूप सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ऐसी दो अलग-अलग अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। हो सकता है कि इसकी संख्या को यथावत् रखने के लिये कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जहाँ एक ओर सयोगी और अयोगी केवली का भेद किया गया, वहीं दूसरी ओर उपशान्त अवस्था को छोड़ दिया गया हो। इस तुलनात्मक विवरण के विवेचन के पश्चात् नामों को स्पष्टता तथा सयोगी और अयोगी अवस्थाओं के विभाजन के आधार पर हम कह सकते हैं कि कार्तिकेयानप्रेक्षा का यह विवरण आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा क्वचित् परवर्ती है और कसायपाहुड और षट्खण्डागम चूलिका के व्याख्यासूत्रों के समकालिक प्रतीत होता है। फिर भी चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न होने के कारण हम कह सकते हैं कि यह कसायपाहुड का समकालिक और षटखण्डागम का पूर्ववर्ती है। पुन: इसमें वर्णित ये दस अवस्थाएँ गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं, इसे स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि मूल ग्रन्थ में उपशान्तकषाय अवस्था का चित्रण नहीं है किन्तु शुभचन्द्र की टीका में उस अवस्था का उल्लेख किया गया है। टीका में मिथ्यात्व अवस्था का परिगणन नहीं करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है। साथ ही टीकाकार ने अयोगीकेवली की चर्चा न कर स्वस्थान-केवली और समुद्घात-केवली ऐसी दो अवस्थाओं की चर्चा की है। यद्यपि षटखण्डागम के व्याख्या-ग्रन्थों में यथाप्रवृत्त-केवली और योगनिरोधकेवली ऐसी दो अवस्थाओं की चर्चा हुई है किन्तु टीकाकार ( शुभचन्द्र ) ने योगनिरोध-केवली की जगह समुद्घात-केवली की चर्चा की है। ज्ञातव्य है कि समुद्घात-केवली का अन्तर्भाव सयोगी-केवली में होता है, अयोगी-केवली में नहीं होता। यह कार्तिकेयानुप्रेक्षा के टीकाकार की अपनी विशेषता है।'
यदि हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त के उल्लेख के अभाव तथा इसमें कर्म-निर्जरा के आध्यात्मिक विकास की ग्यारह अवस्थाओं के चित्रण की उपस्थिति की दृष्टि से इस ग्रन्थ का काल-निर्धारण करें तो वह चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पाँचवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का प्रतीत होता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में प्रतिपाद्य विषयों का जो सरल और सुस्पष्ट विवरण है उसके आधार पर तथा उसकी भाषा की प्राचीनता के आधार पर उसे इस अवधि का मानने में सामान्य रूप से कोई बाधा नहीं आती। दिगम्बर परम्परा में बारह अनुप्रेक्षाओं का स्वतन्त्र विवरण देने वाले दो ग्रन्थ हैं -- प्रथम, कुमारस्वामी का बारस्साणुवेक्खा अपरनाम कार्तिकेयानुप्रेक्षा और दूसरा आचार्य कुन्दकुन्द का बारस्साणुवेक्खा।
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