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________________ ३० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण कार्तिकेयानुप्रेक्षा और कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा का तुलनात्मक अध्ययन करने पर हम यह पाते हैं कि कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा में स्पष्ट रूप से निश्चयनय की प्रधानता और दार्शनिक गम्भीरता है जबकि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में इस प्रकार की कोई चर्चा नहीं है। इससे कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा की अपेक्षा कार्तिकेयानुप्रेक्षा की प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रो० ए० एन० उपाध्ये ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा की भाषा की तुलना करके उसकी भाषा को प्रवचनसार के निकट बताया है। अत: कार्तिकेयानुप्रेक्षा को अधिक परवर्ती नहीं माना जा सकता। मेरी दृष्टि में यह कुन्दकुन्द के पूर्व की है क्योंकि कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा की अपेक्षा भाषा, प्रस्तुतीकरण की शैली, विषय-वस्तु की सरलता आदि की दृष्टि से यह प्राचीन ही सिद्ध होती है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिये कि कुन्दकुन्द के नाम से प्रचलित द्वादशानुप्रेक्षा स्वयं उनकी ही रचना है या किसी अन्य आचार्य की, यह विवादास्पद प्रश्न है। यद्यपि निश्चयनय की प्रधानता की दृष्टि से उसे कुन्दकुन्द की रचना माना जा सकता है। ग्रन्थ के अन्त में 'मुनिनाथ कुन्दकुन्द ने ऐसा कहा', इस प्रशस्ति गाथा की उपस्थिति इसके कुन्दकुन्द का ग्रन्थ होने में बाधक बनती है क्योंकि कुन्दकुन्द स्वयं अपने को मुनिनाथ नहीं कह सकते। इस स्थिति में या तो हमें इस प्रशस्ति गाथा को प्रक्षिप्त मानना होगा या फिर यह मानना होगा कि कुन्दकुन्द के विचारों को आत्मसात करते हुए उनके किसी निकट शिष्य ने इसकी रचना की है। पुन: कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने उन्हें कुमारनन्दी का शिष्य बताया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के रचनाकार स्वामीकुमार यदि कुमारनन्दी हैं, तो ऐसी स्थिति में वे कुन्दकुन्द के पूर्व हुए हैं। पुन: इस आधार पर भी हम कार्तिकेयानुप्रेक्षा को प्राचीन कह सकते हैं क्योंकि जहाँ कुन्दकुन्द गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित हैं वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा के कर्ता स्वामीकुमार उससे परिचित नहीं हैं। ये मात्र ग्यारह गुणश्रेणियों से परिचित हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार कब हुए इस सम्बन्ध में दिगम्बर विद्वानों ने पर्याप्त परिश्रम किया है। जहाँ ए० एन० उपाध्ये उन्हें जोइन्दू ( योगीन्दु ) के बाद अर्थात् लगभग सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में रखते हैं", वहाँ पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार इन्हें उमास्वाति के बाद स्थापित करते हैं। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में जो भावनाओं का क्रम दिया गया है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थ के अनुरूप है जबकि मूलाचार, भगवती-आराधना और कुन्दकुन्द की द्वादशानुप्रेक्षा में जो भावनाओं का क्रम दिया गया है वह भिन्न है। इन सभी गुणस्थान की अवधारणा से परिचित परवर्ती ग्रन्थों से भावना-क्रम की विभिन्नता और तत्त्वार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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