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दिगम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज
सूत्र की अवधारणा का अभाव और आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का उल्लेख उसे तत्त्वार्थसूत्र से क्वचित् परवर्ती सिद्ध करता है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उमास्वाति के तत्त्वार्थ का अनुसरण यही सूचित करता है कि वे उमास्वाति के निकट परवर्ती रहे होंगे। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा में उमास्वाति के तत्त्वार्थ के समान ही गुणस्थान सिद्धान्त की अनुपस्थिति है और कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का चित्रण है। आध्यात्मिक विकास की इन अवस्थाओं का चित्रण क्वचित् अन्तर के साथ दोनों में समान रूप से पाया जाता है। अत: कार्तिकेयानुप्रेक्षा को उमास्वाति के पश्चात् रखा जा सकता है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक के रूप में जिन स्वामीकुमार का उल्लेख है, यदि हम उनका समीकरण हल्सी के ताम्रपत्र में उल्लेखित यापनीय संघ के कुमारदत्त से करते हैं तो उनका काल ईसा की पाँचवीं शताब्दी सिद्ध होगा।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा को पाँचवीं शताब्दी की रचना मानने में निम्नलिखित बाधाएँ हैं -
सर्वप्रथम तो यह कि इसमें नित्य एकान्त, क्षणिक एकान्त एवं ब्रह्मानन्द का निराकरण, सर्वज्ञता की तार्किक पुष्टि आदि पाए जाते हैं। इन विवरणों को देखते हुए ऐसा लगता है कि कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर समन्तभद्र का स्पष्ट प्रभाव है। यद्यपि समन्तभद्र के काल के सम्बन्ध में विद्वानों में अभी मतैक्य नहीं है। जहाँ पं० जुगलकिशोर आदि विद्वान उन्हें ई० सन की दूसरी-तीसरी शताब्दी का मानते हैं, वहाँ प्रो० मधुसूदन ढाकी आदि उन्हें ईस्वी सन् की सातवीं शताब्दी का मानते हैं ( प्रो० ढाकी से व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर )। प्रस्तुत कृति में हम इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना नहीं चाहते हैं किन्तु इतना तो माना ही जा सकता है कि ऐकान्तिक मान्यताओं के खण्डन और सर्वज्ञता की तार्किक सिद्धि की अवधारणाएँ पाँचवीं शती में अस्तित्व में आ चुकी थीं।
इसी प्रकार कार्तिकेयानुप्रेक्षा में त्रिविध आत्माओं की चर्चा उपलब्ध है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा के अतिरिक्त यह चर्चा कुन्दकुन्द के मोक्ष-प्राभृत, पूज्यपाद के समाधितन्त्र और योगीन्दु के योगसार एवं परमार्थप्रकाश में भी पायी जाती है। किन्तु हम देखते हैं कि जहाँ कुन्दकुन्द और पूज्यपाद के ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख है वहाँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा के लेखक स्वामीकुमार ने गुणस्थान की कोई चर्चा नहीं की है। सामान्यतया दिगम्बर परम्परा के विद्वान् पूज्यपाद की अपेक्षा कुन्दकुन्द को पूर्ववर्ती मानते हैं। पुन: कुन्दकुन्द के कुछ टीकाकारों ने कुन्दकुन्द के गुरु के रूप में कुमारनन्दि का उल्लेख किया है और यदि ये
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