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________________ २४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण यहाँ कोई यह प्रश्न उठा सकता है कि आवश्यकनियुक्ति की प्रतिक्रमणनियुक्ति में गाथा सं० १२८७ के पश्चात् की दो गाथाओं में 'चौद्दसभूतगामेहिं' के बाद चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है लेकिन ये दोनों गाथाएँ जिनमें चौदह गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है, प्रक्षिप्त हैं और इनकी गणना आवश्यकनियुक्ति की गाथाओं में नहीं की जाती है। आवश्यकनियुक्ति की आठवीं शताब्दी की हरिभद्र की टीका में इन गाथाओं को नियुक्ति गाथा के रूप में नहीं माना गया है, अपितु जीवसमास की चर्चा के प्रसंग में इन्हें किसी संग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया गया है। अत: यह सुस्पष्ट है कि नियुक्ति साहित्य में चौदह गुणस्थान की अवधारणा पूर्णतया अनुपस्थित है और उनमें तत्त्वार्थ के समान ही दस गुणश्रेणियों की चर्चा है। जैसा कि हमने संकेत किया है आचारांगनिर्यक्ति में उपलब्ध कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की चर्चा करने वाली ये गाथाएँ नियुक्तिकार की न होकर कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी पूर्व साहित्य के किसी ग्रन्थ से ली गई हैं। यद्यपि यह नियुक्ति गाथा के रूप में मान्य हैं। जिस प्रकार ये गाथाएँ षटखण्डागम के वेदना खण्ड की चूलिका में अवतरित की गईं और वहीं से आगे धवला टीका और गोम्मटसार में भी गई हैं उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी, किसी प्राचीन ग्रन्थ का अंश होकर वहाँ से नियुक्तियों में और कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी प्राचीन और अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में तथा पंचसंग्रह में ये गाथाएँ अवतरित की जाती रही हैं। नियुक्ति के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ शिवशर्मसूरि ( ई० सन् पाँचवीं शती ) प्रणीत कर्म प्रकृति में उपलब्ध होती हैं। प्रस्तुत गाथाएँ आचारांगनियुक्ति और षटखण्डागम में अवतरित गाथाओं के समान हैं। इस सम्बन्ध में यहाँ हम विशेष चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते हैं केवल इतना ही बता देना पर्याप्त है कि इस शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति में इनका अवतरण प्रासंगिक है। साथ ही इनकी इतनी विशेषता अवश्य है कि इसमें 'जिणे य दुविहे' कहकर सयोगी और अयोगी ऐसे दो प्रकार के जिनों की अवधारणा आ गई है और इस प्रकार इनमें दस के स्थान पर ग्यारह गुणश्रेणियाँ मान ली गई हैं। अत: इनकी स्थिति षटखण्डागम के व्याख्या सूत्रों के अनुरूप है। शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति के पश्चात् ये गाथाएँ क्वचित् पाठभेद के साथ पुन: चन्द्रर्षि कृत पंचसंग्रह ( ई० सन् आठवीं शताब्दी के पूर्व ) के बन्धद्वार के उदय-निरूपण में मिलती है, वहाँ ये निम्न रूप में प्रस्तुत हैं - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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