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________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन ११७ शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है। सत्त्वगुण, तमोगुण और रजोगुण अर्थात् प्रमाद और वासना को दबाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु वे भी अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं। चित्त अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करता है किन्तु प्रमाद और वासना के तत्त्व उसे विक्षोभित करते रहते हैं। इस अवस्था को जैन परम्परा के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है। यद्यपि सत्त्वगुण की प्रधानता होने से यह दशा पाँचवें और छठे गुणस्थानों से भी कुछ निकटता रखती है। इसकी तुलना बौद्ध परम्परा की स्रोतापन्न भूमि से भी की जा सकती है। ४. एकाग्र : यह चित्त की एकाग्रता की अवस्था है। वस्तुत: यह पूर्ण आत्मचेतना या जागरुकता की अवस्था है। इसमें चित्त का विषयाभिमुख हो इधर-उधर भटकना समाप्त हो जाता है। व्यक्ति की इच्छाएँ और आकांक्षाएँ क्षीण हो जाती हैं और चित्तवृत्ति स्थिर हो जाती है। इसकी तुलना जैन परम्परा के सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है। ५. निरुद्ध : चित्तवृत्तियों के निरुद्ध हो जाने का अर्थ है - चेतना पूर्ण निर्विकल्प दशा को प्राप्त हो गयी है। इसे स्वरूपावस्थान भी कहा गया है, क्योंकि यहाँ साधक विषयों का चिन्तन छोड़कर स्व-रूप में स्थित हो जाता है। इस अवस्था को जैनधर्म के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के समान माना जा सकता जैन योग-परम्परा में आध्यात्मिक विकास योग-परम्परा से प्रभावित होकर जैन परम्परा में भी आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकास की भूमियों की चर्चा की है। जिस प्रकार योग-परम्परा में योग के आठ अंग माने गए हैं, उसी प्रकार आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है, जो इस प्रकार हैं -- १. मित्रा, २. तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८. परा। इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियाँ अप्रतिपाती हैं। प्रथम चार द्रष्टियों से पतन की सम्भावना बनी रहती है, इसलिये उन्हें प्रतिपाती कहा गया है, जबकि अन्तिम चार दृष्टियों से पतन की सम्भावना नहीं होती, अत: वे अप्रतिपाती कही जाती हैं। योग के आठ अंगों से इन दृष्टियों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है - १. मित्रादृष्टि और यम : मित्रादृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष है। इस अवस्था में अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों अथवा पाँच यमों का पालन होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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