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प्रथम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
व्यक्ति के आध्यात्मिक विशुद्धि के विभिन्न स्तरों का निर्धारण करने के लिये जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया गया है। उसमें व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का मूल्यांकन इसी अवधारणा के आधार पर होता है। यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा जैनधर्म की एक प्रमुख अवधारणा है, तथापि प्राचीन स्तर के जैन आगमों यथा -- आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि में इसका कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायाङ्ग में जीवस्थान के नाम से इसका उल्लेख हुआ है। समवायाङ्ग में यद्यपि १४ गुणस्थानों के नामों का निर्देश हुआ है, किन्तु उन्हें गुणस्थान न कहकर जीवस्थान ( जीवठाण ) कहा गया है।' समवायाङ्ग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के १४ नामों का निर्देश आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध है, किन्तु वहाँ नामों का निर्देश होते हुए भी उन्हें गुणस्थान ( गुणठाण ) नहीं कहा गया है। यहाँ यह भी स्मरणीय है कि मूल आवश्यकसूत्र जिसकी नियुक्ति में ये गाथाएँ आई हैं - मात्र चौदह भूतग्राम हैं, इतना बताती हैं। नियुक्ति सर्वप्रथम उन १४ भूतग्रामों का विवरण देती है, फिर उसमें इन १४ गुणस्थानों का विवरण दिया गया है। किन्तु ये गाथाएँ प्रक्षिप्त लगती हैं, क्योंकि हरिभद्र ( ८वीं शती ) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयन्नाह संग्रहणिकार...” कहकर इन दोनों गाथाओं को उद्धृत किया है। इससे स्पष्ट है कि प्राचीन आगमों और नियुक्तियों के रचनाकाल में गुणस्थान की अवधारणा नहीं थी। नियुक्तियों के गाथा क्रम में भी इन गाथाओं की गणना नहीं की जाती है। इससे यही सिद्ध होता है कि निर्यक्ति में ये गाथाएँ संग्रहणीसूत्र से लेकर प्रक्षिप्त की गई हैं। प्राचीन प्रकीर्णकों में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। श्वेताम्बर परम्परा में इन १४ अवस्थाओं के लिये गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हमें आवश्यकचूर्णि ( ७वीं शती ) में मिलता है, उसमें लगभग तीन पृष्ठों में इसका विवरण दिया गया है।
जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें कसायपाहुड को छोड़कर षटखण्डागम', मूलाचार, भगवती आराधना' और कुन्दकुन्द के समयसार,
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