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________________ गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा ५३ सत्य दर्शन एवं नैतिक आचरण से वंचित रहता है। जैन विचारधारा के अनुसार संसार की अधिकांश आत्माएँ मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहती हैं, यद्यपि ये भी दो प्रकार की आत्माएँ हैं - १. भव्य आत्मा - जो भविष्य में कभी न कभी यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो नैतिक आचरण के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास कर पूर्णत्व को प्राप्त कर सकेंगी और २. अभव्य आत्मा - वे आत्माएँ जो कभी भी आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास नहीं कर सकेंगी, न यथार्थ बोध ही प्राप्त करेंगी। मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा १. एकान्तिक धारणाओं, २. विपरीत धारणाओं, ३. वैनयिकता ( रूढ़ परम्पराओं ), ४. संशय और ५. अज्ञान से युक्त रहती है। इसलिये उसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति उसी प्रकार रुचि का अभाव होता है, जैसे ज्वर से पीड़ित व्यक्ति को मधुर भोजन रुचिकर नहीं लगता। व्यक्ति को यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिये जो करना है वह यही है कि वह ऐकान्तिक एवं विपरीत धारणाओं का परित्याग कर दे, स्वयं को पक्षाग्रह के व्यामोह से मुक्त रखे। जब व्यक्ति इतना कर लेता है, तो यथार्थ दृष्टिकोण वाला बन जाता है। वस्तुत: वह यथार्थ या सत्य प्राप्त करने की वस्तु नहीं है। वह सदैव उसी रूप में उपस्थित है, केवल हम अपने पक्षाग्रह और ऐकान्तिक व्यामोह के कारण उसे नहीं देख पाते हैं। जो आत्माएँ दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती हैं, वे अनन्त काल तक इसी वर्ग में बनी रहती हैं और अपना आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाती हैं। फिर भी इस प्रथम वर्ग की सभी आत्माएँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से समान नहीं हैं। उनमें भी तारतम्य है। पण्डित सुखलालजी के शब्दों में --- प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं जो राग-द्वेष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होती, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है। यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असद्दृष्टि कहलाती है, तथापि वह सद्दृष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गयी हैं। आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किये हैं, जिन्हें क्रमश: मित्रा, तारा, बला और दीपा कहा गया है। यद्यपि इन वर्गों में रहने वाली आत्माओं की दृष्टि असत् होती है, तथापि उनमें मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती जो अन्य आत्माओं में होती है। मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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