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________________ ५० गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण आवरण है, जबकि मिश्रमोह हल्के रंगीन काँच का और मिथ्यात्व मोह गहरे रंग के काँच का आवरण है। पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुणसंक्रमण नामक क्रिया करता है और मिथ्यात्वमोह की कर्म-प्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करता रहता है। सम्यग्दर्शन में उदयकाल की एक अन्तर्महर्त की समय-सीमा समाप्त होने पर पुन: दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि प्रथम (उदय) फलभोग सम्यक्त्व मोह का होता है तो आत्मा विशद्धाचरण करता हआ विकासोन्मुख हो जाता है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है और अपने अग्रिम विकास के लिये उसे पुनः ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करनी होती है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर ही लेती है। ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप यहाँ यह शंका हो सकती है कि ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया तो सम्यग्दर्शन नामक चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही हो जाती है, फिर सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में होने वाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण कौन से हैं ? वस्तुत: ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में दो बार होती है। पहली प्रथम गुणस्थान के अन्तिम चरण में और दूसरी सातवें, आठवें और नवें गणस्थान में। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह दो बार क्यों होती है और पहली और दूसरी बार की प्रक्रिया में क्या अन्तर है ? वास्तविकता यह है कि जैन-दर्शन में बन्धन के प्रमुख कारण मोह की दो शक्तियाँ मानी गयी हैं - १. दर्शनमोह और २. चारित्रमोह। दर्शनमोह यथार्थ दृष्टिकोण ( सम्यग्दर्शन ) का आवरण करता है और चारित्रमोह नैतिक आचरण ( सम्यक्-चारित्र ) में बाधा डालता है। मोह के इन दो भेदों के आधार पर ही ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया भी दो बार होती है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण को समाप्त करने से है, जबकि सातवें, आठवें और नवें गणस्थानों में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चारित्रमोह अर्थात् अनैतिकता को समाप्त करने से है। पहली बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यग्दर्शन का लाभ होता है, जबकि दूसरी बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक्-चारित्र का उदय होता है। एक में वासनात्मक वृत्तियों का निरोध होता है, जब कि दूसरी में दुराचरण का निरोध। एक से दर्शन ( दृष्टिकोण ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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