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________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास ४९ वस्तुतः यह अवस्था ऐसी है जहाँ मानवीय आत्मा जड़ प्रकृति पर विजय प्राप्त करती है। मनोविज्ञान की भाषा में चेतन अहं ( Ego ) वासनात्मक अहं ( Id ) पर विजय प्राप्त कर लेता है। यहीं से अनात्म पर विजययात्रा प्रारम्भ होती है। विकासगामी आत्मा को यहाँ प्रथम बार शान्ति का अनुभव होता है, इसलिये यह प्रक्रिया अपूर्वकरण कही जाती है। इस अपूर्वकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कार्य राग और द्वेष की ग्रन्थियों का छेदन करना है क्योंकि यही तनाव या दु:ख के मूल कारण हैं। साधना के क्षेत्र में यही कार्य अत्यन्त दुष्कर है, क्योंकि यही वास्तविक संघर्ष की अवस्था है। मोह राजा के राजप्रासाद का यही वह द्वितीय द्वार है जहाँ सबसे अधिक बलवान एवं सशस्त्र अंगरक्षक दल तैनात हैं। यदि इन पर विजय प्राप्त कर ली जाती है तो फिर मोहरूपी राजा पर विजय पाना सहज होता है। अपूर्वकरण की अवस्था में आत्मा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित पाँच प्रक्रियाएँ करती हैं - ( क ) स्थितिघात : कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। ( ख ) रसघात : कर्म-विपाक एवं बन्धन की प्रगाढ़ता (तीव्रता) में कमी। (ग ) गुणश्रेणी : कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना ताकि विपाक काल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। (घ ) गुण-संक्रमण : कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर अर्थात् जैसे दु:खद वेदना को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना। ( च ) अपूर्वबन्ध : क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना। ३. अनिवृत्तिकरण : आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती है। इस भूमिका में आकर आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप पर रहे हुए मोह के आवरण को अनावरित कर अपने ही यथार्थ स्वरूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाता है। अनिवृत्तिकरण में पुन: १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है। अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शनमोहनीय कर्म को प्रथमत: दो भागों में विभाजित करती है। साथ ही अनिवृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दसरे भागों को भी तीन उपविभागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमश: १. सम्यक्त्वमोह, २. मिथ्यात्वमोह और ३. मिश्रमोह कहते हैं। सम्यक्त्वमोह सत्य के ऊपर श्वेत काँच का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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