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________________ जैन दर्शन में आध्यात्मिक विकास शुद्ध होता है, दूसरी से चारित्र शुद्ध होता है। जैन - साधना की पूर्णता दर्शनविशुद्धि में न होकर चारित्रविशुद्धि में है । यद्यपि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि दर्शनविशुद्धि के पश्चात् यदि उसमें टिकाव रहा तो चारित्रविशुद्धि अनिवार्यतया होती है । सत्य के दर्शन के पश्चात् उसकी उपलब्धि एक आवश्यकता है। यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की चारित्रिक विशुद्धि और उसके फलस्वरूप मुक्ति अवश्य ही होती है। सन्दर्भ १. नियमसार, ७७. २. स्पिनोजा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त, पृ० ३८ टिप्पणी, १९९, २०४. ३. ( अ ) अध्यात्ममत परीक्षा, गा० १२५. ( ब ) योगावतार द्वात्रिंशिका, १७-१८. ( स ) मोक्खपाहुड, ४. ४. देखिए ५. मोक्खपाहुड, ४. ६. वही, ५, ८, १०, ११. ७. वही, ५, ९. ८. वही, ५, ६, १२. ९. विशेष विवेचन एवं सन्दर्भ के लिये देखिये (अ) दर्शन और चिन्तन, पृ० २७६-२७७. (ब) जैनधर्म, पृ० १४७. १०. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १२११-१२१४. ११. गोम्मटसार, जीवकाण्ड, १७. १२. वही, २५. - Jain Education International आचारांग, प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन ३-४. , ― ५१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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