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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इसमें ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की छ: अथवा चार, वेदनीय की दो, मोहनीय की शून्य, आयुष्य की १, नामकर्म की ८०, गोत्र की २ और अन्तराय की ५ - इस प्रकार १०१ अथवा ९९ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। ज्ञातव्य है कि उपशम श्रेणी वाला जीव इस गुणस्थान का स्पर्श नहीं करता है। मात्र क्षपक श्रेणी वाला जीव ही इस गणस्थान का स्पर्श करता है। अत: कर्म-प्रकृतियों की यह सत्ता भी क्षपक श्रेणी वाले जीव की योग्यता की अपेक्षा से है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, इस गुणस्थान के प्रारम्भ में पूर्व गुणस्थान की ५९ में से नामकर्म की २ प्रकृति-ऋषभनाराच और नाराच संहनन कम होने से शेष ५७ और उदीरणा की अपेक्षा से उदय से तीन कम अर्थात् ५४ कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती हैं। किन्तु इस गुणस्थान के अन्त में निद्राद्विक का भी विच्छेद हो जाने से मात्र ५५ कर्म-प्रकृतियों का उदय और ५२ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है।
१३. सयोगीकेवली - इस गणस्थान में बंध की अपेक्षा से मात्र एक सातावेदनीय का ही बन्ध सम्भव है, शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं होता। सत्ता की अपेक्षा इसमें वेदनीय की दो, आयुष्य की एक, नामकर्म की अस्सी और गोत्रकर्म की दो, ऐसी ८५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, इस गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की उदययोग्य ५५ प्रकृतियों में से ज्ञानावरण पञ्चक, दर्शनावरण चतुष्क और अन्तराय पञ्चक ऐसी १४ प्रकृति कम होने से और तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय होने से कुल ४२ कर्म-प्रकृतियों का उदय और ३९ कर्म-प्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है।
१४. अयोगीकेवली - इस गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा से योग भी समाप्त हो जाने के कारण किसी भी कर्म-प्रकृति का बन्ध सम्भव नहीं होता है। सत्ता की अपेक्षा से चौदहवें गुणस्थान के प्रारम्भ में तो वेदनीय की दो, आयुष्य की एक (मनुष्यायु), नामकर्म की अस्सी और गोत्रकर्म की दो, ऐसी पचासी कर्म-प्रकृतियों की ही सत्ता है किन्तु चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मात्र मनुष्य त्रिक, वसत्रिक, यशनामकर्म, आदेयनामकर्म, शुभगनामकर्म, तीर्थङ्कर नामकर्म, उच्चगोत्र नामकर्म, पंचेन्द्रिय नामकर्म और सातावेदनीय तथा असातावेदनीय में से कोई एक -- इस प्रकार बारह कर्म-प्रकृतियाँ शेष रहती हैं किन्तु अन्त में इनका भी विच्छेद हो जाता है और जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जहाँ तक उदय और उदीरणा का प्रश्न है, चौदहवें गुणस्थान में उदीरणा सम्भव नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशनामकर्म, वेदनीय की कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, उच्चगोत्र तथा तीर्थङ्कर
नामकर्म, इन बारह कर्म-प्रकृतियों का उदय इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक __Jain Educरहता है। इनका उदय समाप्त होते ही जीव मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। ...
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