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________________ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह ऐसी सात कर्म - प्रकृतियों का उपशम या क्षय करके चतुर्थ गुणस्थान में आरोहण कर जाते हैं। क्षय और उपशम की जो प्रक्रिया घटित होती है, वह मिथ्यात्व गुणस्थान के चरम समय में ही घटित होती है, किन्तु उनके क्षय का उपशम होने पर मिथ्यात्व गुणस्थान नहीं रह जाता है । अत: प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा से कर्म-प्रकृतियों के क्षय और उपशम की कोई चर्चा नहीं की जा सकती है। २. सास्वादन गुणस्थान प्रथम गुणस्थान के अन्त में जब जीव मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर संक्रमण करता है और वहाँ से पुनः गिरकर जब तक मिथ्यात्व को ग्रहण नहीं कर लेता तब तक नरक-त्रिक अर्थात् नरकायु, नरकगति और नरकानुपूर्वी, जाति-चतुष्क, स्थावर- चतुष्क अर्थात् स्थावर, सूक्ष्म अपर्याप्त और साधारण नामकर्म, हुंडक-संस्थान, आतपनामकर्म, सेवार्त संहनन, नपुंसक वेद और मिथ्यात्व मोह इन सोलह कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, क्योंकि ये प्रकृतियाँ मिथ्यात्व मोहनीय के उदय में ही बँधती हैं, अतः सास्वादन गुणस्थान में १०९ कर्म - प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव होता है। सत्ता की अपेक्षा से तीर्थङ्कर नामकर्म को छोड़कर शेष १४७ कर्म - प्रकृतियों की सत्ता सास्वादन गुणस्थान में होती है । उदय और उदीरणा की अपेक्षा से द्वितीय गुणस्थान में मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह, सम्यक्त्वमोह, तीर्थङ्करनामकर्म, आहारकद्विक, सूक्ष्मशरीर, अपर्याप्त अवस्था, साधारणशरीर, आतपनामकर्म तथा नरकानुपूर्वी इन ग्यारह कर्म-प्रकृतियों का अनुदय होने से इस गुणस्थान में १११ कर्म-प्रकृतियों के उदय की सम्भावना होती है। ८२ -T Jain Education International ३. मिश्र गुणस्थान मिश्र गुणस्थान में सास्वादन गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ कर्म - प्रकृतियों में से भी तिर्यञ्चत्रिक, स्त्यानर्द्धि- त्रिक ( अर्थात् स्त्यानर्द्धि, प्रचला और प्रचलाप्रचला, दुर्भगनामकर्म, दुस्स्वरनामकर्म, अनादेय नामकर्म, अनन्तानुबन्धी कषाय- चतुष्क, मध्यम- संस्थान - चतुष्क ( मध्य के चार संस्थान ), मध्यम संहनन चतुष्क ( मध्य के चार संहनन ), नीचगोत्र, उद्योतननामकर्म, अशुभविहायोगति, स्त्रीवेद इन २५ कर्म - प्रकृतियों का छेद तथा देवायु और मनुष्यायु इन दो का बन्ध सम्भव न होने से (१०१ – २७ = ७४) शेष कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। सत्ता की अपेक्षा से तीर्थङ्कर-नामकर्म को छोड़कर इसमें भी १४७ कर्म - प्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं। तृतीय गुणस्थान के प्रारम्भ में उदययोग्य १२२ कर्म - प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क, स्थावरनामकर्म, एकेन्द्रियनामकर्म और तीन विकलेन्द्रियनामकर्म का छेद तथा तिर्यञ्च, मनुष्य और देवानुपूर्वी का अनुदय तथा मिश्रमोह का उदय होने से शेष १११ कर्म-प्रकृतियों के उदय - उदीरणा की सम्भावना होती है । For Private & Personal Use Only ―――― - — www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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