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गुणस्थान और कर्मसिद्धान्त
४. अविरत सम्यक्-दृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में बन्ध के योग्य १२० कर्म-प्रकृतियों में से मात्र ७७ कर्म-प्रकृतियों के बन्ध की सम्भावना होती है। वैसे तृतीय गुणस्थान में बन्ध-योग्य ७४ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गई हैं - उनमें तीर्थङ्कर-नामकर्म, मनुष्य-आयु और देव-आयु इन तीन के बन्ध की सम्भावना इस गुणस्थान में होने से इसमें बन्ध-योग्य कर्म-प्रकृतियाँ ७७ होती हैं। इसमें जिन ४३ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है, वे निम्नलिखित हैं -
आहारकद्विक (२), नरकत्रिक (३), जातिचतुष्क (४), तिर्यश्चत्रिक (३), स्त्यानद्धित्रिक अर्थात् स्त्यानर्द्धि, प्रचला और प्रचला-प्रचला (३), हुंडकसंस्थान (१), मध्यमसंस्थानचतुष्क (४), आतपनामकर्म (१), उद्योतनामकर्म (१), स्त्रीवेद (१), नपुंसकवेद (१), सेवार्त संहनन (१), मध्यमसंहननचतुष्क (४), नीचगोत्र (१), अशुभविहायोगति (१), अनन्तानुबन्धीचतुष्क (४), स्थावरचतुष्क (४), दुर्भगत्रिक (३) और मिथ्यात्वमोह (१)- इन ४३ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, किन्तु इस अवस्था में तीर्थङ्कर-नामकर्म के बन्ध की सम्भावना रहती है। जहाँ तक विभिन्न गुणस्थानों में कर्म-प्रकृतियों की सत्ता का प्रश्न है यह हम बता चुके हैं कि प्रथम गुणस्थान में १४८, द्वितीय एवं तृतीय गुणस्थानों में तीर्थङ्कर नामकर्म की असम्भावना होने से १४७ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है। पुन: चतुर्थ गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक इन सभी गुणस्थानों में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता मानी जाती है, किन्तु इस सत्ता को जीव की बन्धन या बन्ध सम्भावना योग्यता की अपेक्षा से ही समझना चाहिये। वस्तुत: तो किसी भी जीव में एक समय में दो आयु अर्थात् वर्तमान आयु और भावी जीवन की आयु से अधिक की सत्ता नहीं रहती, किन्तु उसमें यह सामर्थ्य अवश्य होती है कि वह विकल्प से किसी भी आयु का बन्ध कर सके। इस प्रकार उसमें रही हुई कर्मबन्ध की योग्यता की अपेक्षा से ही इन गुणस्थानों में भी १४८ ही कर्म-प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता मानी जाती है। यद्यपि चतुर्थ गुणस्थान में सम्भव-सत्ता की अपेक्षा से तो सामान्य जीव, जिसने क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है, में १४८ कर्म-प्रकृतियों की सम्भव-सत्ता मानी जाती है, किन्तु जो चरम शरीरी आत्मा क्षपक श्रेणी का आरोहण कर उसी भव में मोक्ष जाने वाली है, फिर भी जिन्होंने अभी आरोहण प्रारम्भ किया नहीं है, उसमें १४५ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है, क्योंकि उसमें नरकायु, तिर्यञ्चायु और देवायु - इन तीन का विच्छेद होता है। जिस आत्मा ने चतुर्थ गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है, किन्तु अभी उसका भवभ्रमण शेष है, उसमें अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और दर्शन मोह-त्रिक का विच्छेद हो जाने से १४१ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता होती है। जिस चरमशरीरी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जीव ने
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