SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया उसमें अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क, दर्शनमोह-त्रिक और मनुष्यायु छोड़कर आयुत्रिक - इन १० कर्म-प्रकृतियों का विच्छेद हो जाने से मात्र १३८ कर्म-प्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान में अधिकतम १४८ और न्यूनतम १३८ की सत्ता हो सकती है। उदय और उदीरणा की अपेक्षा से चतुर्थ अविरति सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में १०४ कर्म-प्रकृतियों के उदय एवं उदीरणा की सम्भावना होती है। उदय और उदीरणा के योग्य १२२ कर्म-प्रकृतियाँ मानी गयी हैं। चतुर्थ गुणस्थान में स्थित जीव को ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दोनों प्रकृतियों का तथा इसी प्रकार आयुष्य की चारों, गोत्र की दोनों और अन्तराय की पाँचों - इस प्रकार छह कर्मों की सभी सत्ताईस अवान्तर कर्म-प्रकृतियों का उदय तो सम्भव ही है किन्तु शेष मोहनीय कर्म की उदय-योग्य २८ प्रकृतियों में से २२ का ही उदय होता है। उसे अनन्तानुबन्धी कषाय-चतुष्क का और मोहत्रिक में से मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह इन दो को मिलाकर कुल छ: प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। किन्तु सम्यक्त्व मोहनीय कर्म का उदय हो सकता है। इस प्रकार उसमें मोहनीय कर्म की २२ प्रकृतियों का ही उदय होता है। इसी प्रकार नामकर्म की भी उदय योग्य ६७ कर्म-प्रकृतियों में से ५५ कर्म-प्रकृतियों का ही उदय होता है। नामकर्म की जिन बारह कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं होता, वे हैं - १. सूक्ष्म नामकर्म, २. अपर्याप्त नामकर्म, ३. साधारण नामकर्म, ४. आतप नामकर्म, ५. स्थावर नामकर्म, ६. एकेन्द्रियजाति नामकर्म, ७. द्वीन्द्रियजाति नामकर्म, ८. त्रीन्द्रियजाति नामकर्म, ९. चतुरेन्द्रियजाति नामकर्म, १०. आहारक शरीर, ११. आहारक अङ्गोपाङ्ग और १२. अर्धनाराच नामकर्म। इस प्रकार उदय योग्य १२२ में से मोहनीय की छह और नामकर्म की १२ – कुल १८ कर्म-प्रकृतियों का उदय नहीं होता है और मात्र १०४ कर्मप्रकृतियों का उदय होता है और उतनी ही उदीरणा भी सम्भव है। चतुर्थ गुणस्थान में उदय-योग्य और उदीरणा-योग्य कर्म-प्रकृतियों की संख्या समान होती है। ५. देशविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान - इस गुणस्थान में बन्ध-योग्य १२० कर्म-प्रकृतियों में से ६७ कर्म-प्रकृतियों का बन्ध ही सम्भव है। इसमें ज्ञानावरणीय की तो पाँचों कर्म-प्रकृतियों का बन्ध होता है किन्तु मोहनीय कर्म की बन्ध-योग्य २६ कर्म-प्रकृतियों में से मात्र १५ का ही बन्ध होता है। इसमें मोहनीयकर्म की अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क और अप्रत्याख्यानी कषायचतुष्क, मिथ्यात्वमोह, नपुंकसकवेद और स्त्रीवेद इन ग्यारह प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता, शेष पन्द्रह का होता है। आयुष्क कर्म की चार में से केवल एक देवायु का बंध ही होता है, शेष तीन नरकायु, तिर्यश्चायु और मनुष्यायु का बन्ध इनमें नहीं होता है तथा नामकर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy