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गुणस्थान : स्वरूप एवं समीक्षा
६९ लोकमान्य तिलक लिखते हैं -- “जिन कर्म-फलों का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला उनके भोगे बिना छुटकारा नहीं है - 'प्रारब्धकर्मणा भोगादेव क्षयः'।'' नाम ( शरीर ), गोत्र एवं आयुष्य कर्म का विपाक साधक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। साथ ही शरीर की उपस्थिति तक शारीरिक अनुभूतियों ( वेदनीय ) का भी होना आवश्यक है। अत: पुरुषार्थ एवं साधना के द्वारा इनमें कोई परिवर्तन करना सम्भव नहीं। यही कारण है कि जीवन्मुक्त भी शारीरिक उपाधियों का निष्काम भाव से उनकी उपस्थिति तक भोग करता रहता है। लेकिन जब वह इन शारीरिक उपाधियों की समाप्ति को निकट देखता है तो शेष कर्मावरणों को समाप्त करने के लिये यदि आवश्यक हो तो प्रथम केवली समुद्घात करता है और तत्पश्चात् सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों का निरोध कर लेता है तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर त्याग कर निरुपाधि सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है। (इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पाँच ह्रस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, लु को मध्यम स्वर से उच्चारित करने में लगता है उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मा रहती है। यह गुणस्थान अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है, इसका अर्थ यह है कि इस अवस्था में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णत: निरोध हो जाता है। वह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म-स्थिति कहा है।१९
सन्दर्भ १. तत्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थसिद्धि टीका ( पूज्यपाद ), ८/१. २. गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), १७. ३. योगदृष्टि समुच्चय. ४. ( अ ) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड ), २४, २५.
( ब ) सम प्रॉब्लम्स ऑफ जैन साइकोलॉजी, पृ० १५६. ५. योगबिन्दु, २७०. ६. बोधिपंजिका, पृ० ४२१, उद्धृत बौद्धदर्शन, आचार्य नरेन्द्रदेव, पृ०
११९. ७. योगबिन्दु, २७३-२७४.
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