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________________ श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज बहुत अधिक प्रासंगिक नहीं लगती हैं । फिर भी गुणश्रेणी की अवधारणा का अभी तक जो भी प्राचीनतम स्रोत उपलब्ध है, वह तो यही है । इन दोनों गाथाओं में कर्म-निर्जरा की क्रमिक अधिकता की दृष्टि से निम्नलिखित दस अवस्थाओं का चित्रण हुआ है २१ १. सम्यक्त्वोत्पत्ति, २. श्रावक, ३. विरत, ४. अनन्तवियोजक ( अणंतकम्मंसे ), ५. दर्शनमोहक्षपक, ६. उपशमक, ७. उपशान्त, ८. क्षपक, ९. क्षीणमोह और १०. जिन । इन दस अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त से किस रूप में सम्बन्ध है और कितनी समानता और विभिन्नता है इसकी विस्तृत चर्चा पूर्व अध्याय में की जा चुकी है फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से इस सम्बन्ध में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्र या सम्यक् - मिथ्यादृष्टि इन तीन अवस्थाओं की चर्चा इसमें नहीं है। इसकी प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के औपशमिक सम्यग्दृष्टि के समान है। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी श्रावक और विरत अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के पाँचवें देशव्रत और छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में क्षायिक सम्यग्दृष्टि की प्राप्ति के लिये साधक यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण करता है। किन्तु इसकी पाँचवीं अवस्था दर्शनमोहक्षपक की तुलना अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान करण से नहीं की जा सकती। इसकी कषाय उपशम और उपशान्तकषाय अवस्थाओं को दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है। अगली दो अवस्थाएँ क्षपक और क्षीणमोह में क्षपक का गुणस्थान सिद्धान्त में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि क्षीणमोह, बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान के समान ही है। जिन अवस्था को हम सयोगी केवली की अवस्था कह सकते हैं किन्तु इसमें अयोगी केवली का कोई उल्लेख नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में जो उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी की दृष्टि से अलग-अलग चर्चा की जाती है उसका इस अवधारणा में अभाव है। वस्तुतः इस अवधारणा में उपशम और क्षायिक श्रेणियों को अलग-अलग न करके यह माना गया कि उपशम के बाद ही क्षायिक भाव उत्पन्न होता है । सम्यक्त्व - उत्पत्ति, श्रावक और विरत ये तीनों अवस्थाएँ औपशमिक सम्यक् - दर्शन और व्यवहार चारित्र की सूचक हैं। एक दृष्टि से हम इन्हें दर्शनमोह उपशमक और दर्शनमोह उपशान्त की अवस्था कह सकते हैं। अनन्त - वियोजक और दर्शनमोह क्षपक को हम क्षायिक सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति और दर्शनमोह के क्षीण होने की अवस्था For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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