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तृतीय अध्याय श्वेताम्बर साहित्य में गुणस्थान
सिद्धान्त के बीज
पूर्व अध्याय में हमने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की पूर्व अवस्था के रूप में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म-निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं/गुणश्रेणियों की चर्चा की है, जिन्हें हम गुणस्थान सिद्धान्त का मूल स्रोत मानते हैं। हम इस सम्बन्ध में अपनी खोज जारी रखे हुए थे कि तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित इन दस अवस्थाओं का आगमिक आधार क्या है और इन अवस्थाओं का प्राचीनतम उल्लेख किस ग्रन्थ में मिलता है ? अपनी इस खोज के दौरान हमने श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य का आलोडन किया किन्तु उसमें हमें कहीं भी इन दस अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त नहीं हो सका। यदि विद्वानों को इसका कोई संकेत भी उपलब्ध हो तो हमें सूचित करें। उसके बाद हमने प्राचीनतम आगमिक व्याख्याओं की दृष्टि से नियुक्तियों का अध्ययन प्रारम्भ किया
और संयोग से आचारांगनियुक्ति के सम्यक्त्व पराक्रम नामक चतुर्थ अध्याय की नियुक्ति में इन दस अवस्थाओं का उल्लेख करने वाली निम्नलिखित दो गाथाएँ उपलब्ध हुईं --
सम्मत्तुपत्ती सावए य विरए अणंतकम्मंसे । दंसणमोहक्खवए उवसामंते य उवसंते ।। २२ ।। खवए य खीणमोहे जिणे अ सेढी भवे असंखिज्जा । तव्विवरीओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढीए ।। २३ ।।
- आचारांगनियुक्ति ( नियुक्तिसंग्रह, पृ० ४४१ ) यदि हम नियुक्ति साहित्य को तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा प्राचीन मानते हैं तो हमें यह कहना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र की इन दस अवस्थाओं का प्राचीनतम स्रोत आचारांगनियुक्ति ही है। यद्यपि आचारांगनियुक्ति में जिस स्थल पर ये गाथाएँ हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा लगता है कि ये गाथाएँ मूलत: नियुक्तिकार की नहीं हैं, अपितु पूर्व साहित्य के किसी कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थ से इन गाथाओं को इसमें अवतरित किया गया है क्योंकि सम्यक्त्व-पराक्रम की चर्चा के प्रसंग में ये गाथाएँ
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