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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
के अधिक निकट होगा। वस्तुत: बुद्धघोष के समय तक इन शब्दों का मूल अर्थ विलुप्त हो गया होगा और इसलिये इनके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही कल्पना की होगी। इस प्रसंग में मैंने जो व्याख्या की है वह असंगत नहीं मानी जा सकती है। गीता के त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान-सिद्धान्त की तुलना
यद्यपि गीता में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम का उतना विस्तृत विवेचन नहीं मिलता, जितना जैन-विचार में मिलता है, तथापि गीता में उसकी एक मोटी रूपरेखा अवश्य है। गीता में इस वर्गीकरण का प्रमुख आधार त्रिगुण की धारणा है। डॉ० राधाकृष्णन् भगवद्गीता की टीका में लिखते हैं - "आत्मा का विकास तीन सोपानों से होता है। यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान ( तमोगुणप्रधान अवस्था ) से भौतिक सुखों के लिये संघर्ष ( रजोगणात्मक प्रवृत्ति ) के द्वारा ऊपर उठती हई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है। गीता के अनुसार आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्त्वगुण की ओर बढ़ती हुई अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है। गीता में इन गुणों के संघर्ष की दशा का प्रतिपादन है, जिससे नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास को समझा जा सकता है। जब राजसगुण और सत्त्वगुण को दबाकर तमोगुण हावी होता है, तो जीवन में निष्क्रियता एवं जड़ता बढ़ती है। प्राणी परिवेश के सम्मुख झुकता रहता है। यह अविकास की अवस्था है। जब सत्त्व और तम को दबाकर राजस प्रधान होता है तो जीवन में अनिश्चयता, तृष्णा और लालसा बढ़ती है। इसमें अन्ध एवं आवेशपूर्ण प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है, यह अनिश्चय की अवस्था है। यह दोनों ही अविकास की सूचक हैं। जब रजस् और तमस् को दबाकर सत्त्व प्रबल होता है तो जीवन में ज्ञान का प्रकाश आलोकित होता है। जीवन यथार्थ आचरण की दिशा में बढ़ता है। यह विकास की भूमिका है। जब सत्त्व के ज्ञान-प्रकाश में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है, तो वह गुणातीत हो द्रष्टामात्र रह जाती है। इन गुणों की प्रवृत्तियों में उसकी ओर से मिलने वाला सहयोग बन्द हो जाता है। त्रिगुण भी संघर्ष के लिये मिलने वाले सहयोग के अभाव में संघर्ष से विरत हो साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं। तब सत्त्व ज्ञान-ज्योति बन जाता है। रजस् स्व-स्वरूप में रमण बन जाता है और तमस् शान्ति का प्रतीक हो जाता है। यह त्रिगुणातीत दशा ही आध्यात्मिक पूर्णता की अवस्था है। सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के आधार पर ही गीता में व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि, कर्म, कर्ता आदि का त्रिविध वर्गीकरण है। प्रश्न यह उठता है कि हम गीता में इस त्रिगुणात्मकता की धारणा को ही नैतिक विकास-क्रम का आधार क्यों मानते हैं ?
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