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अष्टम अध्याय
गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का
तुलनात्मक अध्ययन
जैन और बौद्ध साधना-पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकर मत - वैभित्र्य भले ही हो, फिर भी दोनों का आदर्श है निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा का स्पर्श करता है। जैन- परम्परा में आध्यात्मिक विकास की चौदह भूमियाँ मानी गयी हैं। बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत- वैभिन्य है । श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय, जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हत् - पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है; जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोक-मंगल की साधना है, आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ मानता है । यहाँ हम दोनों ही सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को देखने का प्रयास करेंगे।
हीनयान और आध्यात्मिक विकास
प्राचीन बौद्धधर्म में भी जैनधर्म के समान संसारी प्राणियों की दो श्रेणियाँ मानी गयी हैं १. पृथग्जन या मिथ्यादृष्टि तथा २. आर्य या सम्यक् - दृष्टि । मिथ्यादृष्टित्व अथवा पृथग्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकास का काल तो तभी प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यक् दृष्टिकोण को ग्रहण कर निर्वाणगामी मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है। फिर भी सभी पृथग्जन या मिथ्यादृष्टि प्राणी समान नहीं होते। उनमें तारतम्य होता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है तथा वे यथार्थ दृष्टि के अति निकट होते हैं। अतः पृथग्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है १. प्रथम अंध पृथग्जन भूमि, यह अज्ञान एवं मिथ्यादृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं २. कल्याण पृथग्जन भूमि । मज्झिम निकाय में इस भूमि का निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि भी कहा गया है। इस भूमि में साधक निर्वाण - मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं
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