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गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण
मिथ्यादृष्टि की अवधारणा अनुपस्थित है, जबकि कसायपाहुडसुत्त में इस पर विस्तृत चर्चा उपलब्ध है।* किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की 'अनन्तवियोजक' की अवधारणा कसायपाहुड में उपलब्ध नहीं है उसके स्थान पर उसमें दर्शनमोह उपशमक की अवधारणा पाई जाती है । तत्त्वार्थसूत्र की उपशमक, उपशान्त, क्षपक और क्षीणमोह की अवधारणाएँ स्पष्ट रूप से कसायपाहुडसुत्त में चारित्रमोह उपशमक, उपशान्त कषाय और चारित्रमोह क्षपक तथा क्षीणमोह के रूप में यथावत् पाई जाती हैं। यहाँ चारित्रमोह शब्द का स्पष्ट प्रयोग इन्हें तत्त्वार्थ की अपेक्षा अधिक स्पष्ट बना देता है । पुनः कसायपाहुडसुत्त में भी तत्त्वार्थसूत्र के समान ही प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण ये चारों नाम अनुपस्थित हैं, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा इसमें सम्यक् - मिथ्यादृष्टि ( मिश्र = मिसग ) और सूक्ष्म- सम्पराय (सुहुमराग / सुहुमसम्पराय ) ये दो विशेष रूप से उपलब्ध होते हैं । पुनः उपशान्तमोह और क्षीण मोह के बीच दोनों ने क्षपक ( खवग ) की उपस्थिति मानी है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त में ऐसी कोई अवस्था नहीं है। इससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कसायपाहुड और तत्त्वार्थसूत्र में कर्म- विशुद्धि की अवस्थाओं के प्रश्न पर बहुत अधिक समानता है मात्र मिश्र और सूक्ष्मसम्पराय की उपस्थिति के आधार पर उसे तत्त्वार्थ की अपेक्षा किंचित् विकसित माना जा सकता है। दोनों की शब्दावली, क्रम और नामों की एकरूपता से यही प्रतिफलित होता है कि दोनों एक ही काल की रचनाएँ हैं ।
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मुझे लगता है कि कसायपाहुड, तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके भाष्य के काल में आध्यात्मिक- विशुद्धि या कर्म-विशुद्धि का जो क्रम निर्धारित हो चुका था, वही आगे चलकर गुणस्थान सिद्धान्त के रूप में अस्तित्व में आया। यदि कसायपाहुड और तत्त्वार्थ चौथी शती या उसके पूर्व की रचनाएँ हैं तो हमें यह मानना होगा कि गुणस्थान की सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पाँचवीं शती के बीच ही कभी निर्मित हुई होगी, क्योंकि लगभग छठी शती से सभी जैन विचारक गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा करते प्रतीत होते हैं । इसका एक फलितार्थ यह भी है कि जो कृतियाँ गुणस्थान की चर्चा करती हैं, वे सभी लगभग पाँचवीं शती पश्चात् की हैं। यह बात भिन्न है कि तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुड को प्रथम - द्वितीय शताब्दी का मानकर इन ग्रन्थों का काल तीसरी चौथी शती माना जा सकता है । किन्तु इतना निश्चित है कि षट्खण्डागम, भगवती आराधना एवं मूलाचार के कर्ता तथा आचार्य कुन्दकुन्द उमास्वाति से परवर्ती ही हैं, पूर्ववर्ती कदापि नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द विशेषता यह है कि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती इन जैन चिन्तकों, माध्यमिकों एवं प्राचीन वेदान्तियों विशेष रूप से गौड़पाद के विचारों का लाभ उठाकर जैन
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