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________________ गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणाओं का तुलनात्मक अध्ययन १०९ है ।" यह अवस्था जैन- विचारणा के मिश्र गुणस्थान से मिलती हुई है, क्योंकि मिश्र गुणस्थान सिद्धान्त भी यथार्थ दृष्टि और मिथ्यादृष्टि के मध्य अनिश्चय की अवस्था है। यद्यपि जैन दर्शन के अनुसार इस मिश्र अवस्था में मृत्यु नहीं होती, लेकिन गीता के अनुसार रजोगुण की भूमिका में मृत्यु होने पर प्राणी आसक्ति प्रधान योनियों को प्राप्त करता हुआ ( रजसि प्रलयं गत्वा कर्मसंगिषु जायते ) मध्य लोक में जन्म-मरण करता रहता है ( मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः - २४.१८ )। ४. चतुर्थ भूमिका वह है जिसमें दृष्टिकोण सात्विक अर्थात् यथार्थ होता है, लेकिन आचरण तामस एवं राजस होता है। इस भूमिका का चित्रण गीता के छठे एवं नवें अध्याय में है। छठे अध्याय में 'अयतिः श्रद्धयोपेतो' कहकर इस वर्ग का निर्देश किया गया है । १४ नवें अध्याय में जहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि उन दुराचारवान् ( सुदुराचारी ) व्यक्तियों को भी, जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, साधु ( सात्विक प्रकृति वाला ) ही माना जाना चाहिये, क्योंकि उनका दृष्टिकोण सम्यग्रूपेण व्यवस्थित हो चुका है। १५ गीता में वर्णित नैतिक विकासक्रम की यह अवस्था जैन- विचार में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से मिलती है। जैन विचार के समान गीता भी यह स्वीकार करती है कि ऐसा व्यक्ति जिसका दृष्टिकोण सम्यक् हो गया है, वह वर्तमान में चाहे दुराचारी ही क्यों न हो, वह शीघ्र ही सदाचारी बनकर शाश्वत शान्ति ( मुक्ति ) प्राप्त करता है, " क्योंकि वह साधना की यथार्थ दिशा की ओर मुड़ गया है। इसी बात को बौद्ध - विचार में स्त्रोतापत्र भूमि अर्थात् निर्वाण मार्ग के प्रवाह में गिरा हुआ कहकर प्रकट किया गया है। जैन, बौद्ध और गीता के आचार- दर्शन समवेत रूप से यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा साधक मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है । ९७ गीता के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की पाँचवीं भूमिका यह हो सकती है जिसमें श्रद्धा एवं बुद्धि सात्विक होती है, लेकिन रजोगुण आचरण में सत्त्वोन्मुख तो होता है, फिर भी वह चित्तवृत्ति की चंचलता का कारण होता है। साथ ही पूर्वावस्था के तमोगुण के संस्कार भी पूर्णत: विलुप्त नहीं हो जाते हैं। तमोगुण एवं रजोगुण की तारतम्यता के आधार पर इस भूमिका के अनेक उप-विभाग किये जा सकते हैं। जैन- विचारणा में इस प्रकार के विभाग किये गए हैं, लेकिन गीता में इतनी गहन विवेचना उपलब्ध नहीं है। फिर भी इस भूमिका का चित्रण गीता के छठें अध्याय में मिल जाता है। वहाँ अर्जुन शंका उपस्थित करते हैं कि हे कृष्ण, जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त ( सम्यग्दृष्टि ) होते हुए भी ( रजोगुण के कारण ) चंचल मन होने से योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता उसकी क्या गति होती है ? क्या वह ब्रह्मा ( निर्वाण ) की ओर जाने वाले मार्ग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002129
Book TitleGunsthan Siddhanta ek Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1996
Total Pages150
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Karma, B000, & B030
File Size6 MB
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