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भूमिका
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७. स्वयम्भूछन्द - इसके प्रणेता कविराज स्वयम्भू जैन हैं । कर्त्ता के संबंध विद्वानों के अनेक मत' हैं किन्तु डॉ० वेल्हणकर ने इनका समय १०वीं शती का उतरार्द्ध माना है । स्वयंभू अपभ्रंश भाषा के श्रेष्ठ कवि हैं । अपभ्रंश छन्दपरम्परा की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण कृति है । कवि ने मगणादि गणों का प्रयोग न करके 'छ.प.च.त.द. ३ पारिभाषिक शब्दों के आधार से छन्दों के लक्षण कहे हैं । इस ग्रंथ में छंदों के उदाहरण-रूप में विभिन्न प्राकृत कवियों के २०६ पद्य उद्धृत हैं । लेखक ने कवियों के नाम भी दिये हैं ।
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८. रत्नमञ्जूषा - प्रज्ञातकर्त्तक जैन- कृति है । वेल्हणकर ने इसका समय हेमचन्द्र से पूर्व स्वीकार किया है, अतः ११-१२वीं शती माना जा सकता है । इसमें आठ अध्याय हैं लेखक ने वणिकवृत्तों का समान प्रमान और वितान शीर्षक से विभाजन किया है । मगणादि-गणों की परिभाषा भी लेखक की स्वतन्त्र है । यह पारिभाषिक शब्दावली सम्भवतः पूर्ववर्ती एवं परवर्त्ती कवियों ने स्वीकार नहीं की है ।
६. वृत्तरत्नाकर - इसके प्रणेता कश्यपवंशीय पव्वेकभट्ट के पुत्र केदारभट्ट हैं। कीथ ने इनका समय १५वीं शती माना है किन्तु ११९२ की हस्तलिखित प्रति प्राप्त होने से एवं ११वीं शती की इसी ग्रंथ की त्रिविक्रम की प्राचीन टीका प्राप्त होने से वेल्हणकर ने इनका सत्ताकाल ११वीं शताब्दी ही स्वीकार किया है | पिंगल के अनुकरण पर इसकी रचना हुई है । जयदेवच्छन्दस् की तरह इसमें भी छन्दों के लक्षण लक्ष्य छंदों में ही देकर लक्षण और उदाहरण का एकीकरण किया गया है। इस ग्रंथ का प्रसार सर्वाधिक रहा है ।
१०. सुवृत्ततिलक - इसके प्रणेता क्षेमेन्द्र का समय कीथ " ने हेमचन्द्र के पूर्व अथवा ११वीं शती माना है । मेकडानल" के अनुसार क्षेमेन्द्र की बृहत्कथामंजरी
१- डॉ० भोलाशंकर व्यासः प्राकृतपैंगलम् भा० २, पृ० ३६५; डॉ० शिवनन्दनप्रसादः मात्रिक छन्दों का विकास पृ० ४५-४६
२- देखें, स्वयम्भूछन्द की भूमिका - राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, सन् १९६२
३- तुलना के लिये देखें, इसी ग्रंथ का प्रथम परिशिष्ट -
४- देखें, रत्नमञ्जूषा की भूमिका - भारतीय ज्ञानपीठ काशी, १६४९ ई०
५- कीथ : ए हिस्ट्री प्राव् संस्कृत लिटरेचर पृ० ४१७
६ - देखें, जयदामन् की भूमिका - हरितोषमाला बम्बई ७- कीथ : ए हिस्ट्री श्राव् संस्कृत लिटरेचर, पृ० १३५
८- प्रार्थर ए मेकडॉनल : हिस्ट्री आव् संस्कृत लिटरेचर, पृ० ३७६