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वृत्तमौक्तिक
प्रसिद्ध है । प्रो० एच० डी० वेल्हणकर' ने इनका समय ६००-६०० वि० सं० का मध्य माना है । जयदेव जैन कवि थे। इन्होंने अपना यह ग्रंथ पिंगल के अनुकरण पर लिखा है । लौकिक-छंदों की निरूपण शैली पिंगल से भिन्न है। छन्दों का विवेचन संस्कृत-परम्परा के अनुकूल और अत्यन्त व्यवस्थित है ।
इसमें आठ अध्याय हैं। द्वितीय और तृतीय अध्याय में वैदिक-छन्दों का निरूपण है । संभवतः जैन लेखक होने के कारण ही इस ग्रन्थ का विशेष प्रसार न हो सका। ___ ४. गाथालक्षण-जैन कवि नन्दिताढ्य की यह रचना हैं। श्री वेल्हणकर' के मतानुसार इनका समय ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में माना जा सकता है। प्राकृत-अपभ्रंश परम्परा के छन्दःशास्त्रीय ग्रन्थों में यह प्राचीनतम ग्रंथ है। नन्दिताढ्य द्वारा इस ग्रंथ में जिन छंदों का चयन किया गया है वे केवल जैनागमों में ही उपलब्ध हैं। ग्रंथकार ने गाथावर्ग के विविध छन्दों का विस्तार से वर्णन किया है । लेखक के दृष्टिकोण से अपभ्रंश-भाषा हेय है ।' ग्रंथ की भाषा प्राकृत है।
५. वृत्तजातिसमुच्चय--विरहांक की यह रचना है। डॉ. वेल्हणकर' के के मतानुसार इनका समय हवी, १०वीं शताब्दी या इससे भी पूर्व माना जा सकता है। पिंगल के पश्चात् मात्रिक छंदों का सर्वाधिक विवेचन इसी ग्रंथ में प्राप्त है। इसमें ६ परिच्छेद हैं । भाषा प्राकृत है किन्तु पांचवें परिच्छेद में वर्णिकवृत्तों के लक्षण संस्कृत में हैं । ग्रंथ में यति का उल्लेख नहीं है अतः सम्भव है ये यति-विरोधी सम्प्रदाय के हों। इस ग्रंथ में मगणादि गणों के स्थान पर पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग है जो कि पूर्ववर्ती ग्रंथों में प्राप्त नहीं है ।
६. छन्दोनुशासन-इसके प्रणेता कवि जयदेव कन्नड़ प्रान्तीय दिगम्बर जैन थे। डॉ० वेल्हणकर' ने इनका समय १००० ई० के लगभग माना है। पिंगल एवं जयदेव की परम्परा के अनुसार यह ग्रंथ भी आठ अध्यायों में विभक्त है। इसमें अपभ्रंश के मात्रिक-छन्दों का विवेचन भी प्राप्त है । छंदों के लक्षण कारिका-शैली में हैं, उदाहरण स्वतन्त्ररूप से प्राप्त नहीं हैं।
१-देखें, जयदामन की भूमिका-हरितोषमाला, बम्बई २-देखें, कविदर्पण - गाथालक्षण की भूमिका-रा.प्रा.वि.प्र. जोधपुर, सन् १९६२ ३-गाथालक्षण पद्य ३१ ४-देखें, वृत्तजातिसमुच्चय की भूमिका-राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर, सन् १९६२ ५-देखें, जयदामन् की भूमिका-हरितोषमाला, बम्बई