Book Title: Vitrag Vaibhav
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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४०. एवं ससंकष्पविकप्पणासुं, संजायई समयमुवट्ठियस्स ।
अत्थे य संकप्पयओ तओ से, पहीयए कामगुणेसु तन्हा ॥७॥
'राग-द्वेषमूलक संकल्प-विकल्प ही सब दोषों के मूल हैं, इन्द्रिय विषय नहीं' जो इस प्रकार का संकल्प करता है, उसके मन में समता उत्पन्न होती है । उससे उसकी कामगुणों में होने वाली तृष्णा क्षीण हो जाती है ।
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४०. 'राग-द्वेषान्य संकल्प - विकल्प ४ बघा घोषनुं भूज छे, छन्द्रियવિષય નહિ.” જે કોઈ આવું વિચારે છે, તેતા મતમાં સમતા જન્મે છે. પરિણામે, એતી કામગુણોમાં થતી તૃષ્ણા ક્ષીણ થઈ भय छे.
40. One root cause of all evils is aspiration full of attachment and aversions and not sensual subjects. Those who think & believe that, equanimity is born in them. Consequently his greed for sensual pleasures is eliminated.
४१. भावे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण, दुक्खोहपरंपरेण ।
न लिप्पई भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥ ८ ॥
भाव से विरक्त मनुष्य शोक-मुक्त बन जाता है । जैसे कमलिनी का पत्र जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही वह संसार में रहकर भी दुःखों की परम्परा से लिप्त नहीं होता ।
GLORY OF DETACHMENT
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