Book Title: Vitrag Vaibhav
Author(s): Gunvant Barvalia
Publisher: Saurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
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३२. जीवदया अनुकंपा सूत्र ३६५. कल्लाणकोडिकारिणी, दुग्गड़दुहणिट्ठवणी । ।
संसारजलही तारणी, एगंत होड़ जीवदया || (ग्रंथ)
394.
करोड़ो जीवों का कल्याण करनेवाली दुर्गति और दुःखों का नाश करनेवाली संसार जल से तारनेवाली जीवदया ही होती है ।
૩૨. જીવદયા અનુક્શા સૂત્ર
કરોડો જીવોતું કલ્યાણ કરવાવાળી દુર્ગતિ અને દુઃખતો તાશ કરવાવાળી સંસાર જળથી તારવાવાળી જીવદયા જ હોય છે.
32. GIVADAYA ANUKAMPA SOOTRA
Sympathy & love towards the living organisms conductives happiness & prosperity and destroys endless misery & suffering.
365
३६६. नालं ते तव ताणाए वा तुमं पि तेसिं नालं ताणाए वा
सरणाए वा, सरणाए वा ।
(श्री आचारंग सूत्र )
399.
आत्मन् ! जिसे हनन योग्य मानता है वह तू ही है । આત્મન્ ! જેતે હણવા યોગ્ય માને છે એ તું જ છે. 366. O Soul ! That which you consider worth destroying is your ownself.
३६७. जइ मज्झ कारणा एए, हमंति सुबहू जिया । ण मे एयं तु णिस्सेसं, परलोगे भविस्स ॥
(श्री उत्तराध्ययन सूत्र ) भगवान चिंतन करने लगे कि यदि मेरे कारण इन बहुत से प्राणियों का वध किया जाता है, तो मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं होगा ।
GLORY OF DETACHMENT
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