Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आधुनिक जैन पाण्डित्य का चरमोत्कर्ष
स्व. पं० कैलाश चन्द्र शास्त्री
प्रो० खुशाल चन्द्र गोरावाला पाण्डित्य से परीक्षोतीर्ण-पाण्डित्य
मूल (श्रमण) संस्कृति में गृहस्थ के छह नित्यकृत्यों या आवश्यकों में स्वाध्याय का स्थान महत्वपूर्ण है। इस परम्परा के कारण ही श्रुतधर आचार्यों, भट्टारकों और विशिष्ट विद्वानों के युग की समाप्ति के बाद भी मूल जिनधर्मी (दिगम्बरी) समाज में जैन वाङ्मय के गम्भीर स्वाध्यायी विद्वान् होते आए हैं। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमल जी, आदि इस परम्परा के आधुनिक निदर्शन हैं। भारत के बौद्धिक जागरण ( रीनेसां) के साथ-साथ प्राच्य अध्ययन को महत्व मिलने पर जिनधर्मी और जिन सम्प्रदायी (श्वेताम्बरी) समाज में भी परीक्षोत्तीर्ण-विद्वानों की ओर ध्यान गया। इस परम्परा में गुरुवर पूज्य श्री १०५ गणेशवर्णी अग्रणी थे। क्योंकि काशी के स्याद्वाद महाविद्यालय ने ही वाराणसी गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज तथा बंगाल संस्कृत ऐशोसियेशन कलकत्ता की परीक्षाओं को दिलाना प्रारम्भ किया था। गुरुवर गणेशवर्णी जी को जयपुर, खुरजा आदि के स्वाध्यायी पंडितों का बहुमान था तथा गुरु गोपालदास जी इस शैली के ऐसे स्वयंभू उन्नत विद्वान् थे जिन्होंने जैन सिद्धान्त के विधिवत् अध्ययन-अध्यापन के लिए विद्यालय (गोपाल सिद्धान्त विद्यालयमुरैना ) की ही स्थापना नहीं की अपितु जैन-जागरण के श्रीमान् अग्रदूत के सहयोग से परीक्षालय (माणिकचन्द्र दि० जैन परीक्षालय बम्बई) की स्थापना करके जैन पाण्डित्य की भी परीक्षोतीर्णता का रूप दिया था। जैन जागरण के इन दोनों धीमान् अग्रदूतों के प्रयास से स्व० पण्डित माणिकचन्द्र (चावली), देवकीनन्दन, वंशीधर ( महरौनी ), वंशीधर (शोलापुर), मक्खनलाल व खूबचन्द्र जी ऐसे उद्भट जिनवाणी वेत्ता समाज को सुलभ हुए थे तथा जैन-न्याय के प्रथम ब्राह्मण गुरुवर अम्बादास जी शास्त्री की साधना का ही यह सुफल था कि प्रमेयकमल-मार्तण्ड, अष्टसहस्री आदि गहन तथा उत्तम ग्रंथों का पठनपाठन सहज हो सका था तथा स्व० पण्डित घनश्यामदास (महरौनी) तथा जीवन्धर (इन्दौर) के गुरुत्व में समाज जैन-न्यायातीर्थों को पा सका था। जैन पाण्डित्य की दूसरी पीढ़ी
___ इन गुरुओं की कृपा से सुलभ आधुनिक जैन पाण्डित्य को दूसरी पीढ़ी के विद्वानों में स्व० पण्डित राजेन्द्रकुमार (भा० दि० जैन संघ संस्थापक), चैनसुखदास जी (जयपुर) अजितकुमार जी (मुलतान) तथा कैलाशचन्द्र (वाराणसी) ऐसे थे, जो धर्म-समाज में १९२१ से आगे के सात दशकों में सब प्रकार से सम्बद्ध रहे हैं। शार्दूलपण्डित राजेन्द्रकुमार जी ने
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