Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 6
Author(s): L C Jain
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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कामन्दकीय नीतिशास्त्र में आर्थिक विचार (अनुमानतः ४०० ई० सन् से ८०० ई० सन्)
नलिन विलोचन
प्राचीन भारतीय नीति विषयक आचार्यों में कामन्दक का अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान है। नीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र का घनिष्ट पारस्परिक सम्बन्ध होने के कारण कामन्दक ने आर्थिक विचारों का भी यथावत् निरूपण किया है। वस्तुतः यह कहना असंगत न होगा कि उन्होंने आर्थिक विचारों को जन्म ही नहीं दिया, वरन् समाज में उन्हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए अनुशासन भी दिया।
___कामन्दक का कहना है कि किसी भी सत्ता को समुचित ढंग से चलाने के लिए राजा की महती आवश्यकता है । यदि राज्य के भार को वहन करने वाला राजा उपस्थित नहीं है, तो प्रजा की स्थिति अत्यधिक दयनीय हो जाती है। उसके अनुसार वार्ता अर्थात् अर्थशास्त्र पर आवारित सारी प्रजा योग्य राजा के न होने पर हतप्रभ हो जाती है और धीरे-धीरे राज्य का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। कामन्दक के विचारों से यह सत्य स्पष्ट हो जाता है कि उन्होंने आर्थिक तंत्र का आधार राजा और राज्य को ही माना है, यहाँ पर यह कहना असंगत न होगा कि आचार्य कामन्दक पूर्ण रूप से कौटिल्य से प्रभावित है। जिस तरह से कौटिल्य प्रजा के सम्पूर्ण आर्थिक क्रिया-कलापों पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक मानते हैं, उसी प्रकार कामन्दक ने भी राजा और राज्य को अर्थतन्त्र का आधार माना है । उसने राजा को धर्म, अर्थ और काम इन तीनों की समृद्धि का अधिकारी और वाहक बतलाया है। उनके अनुसार, जो राजा धर्म का पालन करता है, वह अधिक समय तक पृथ्वी का पालन कर सकता है । परन्तु जो राजा धर्म का पालन नहीं करता है और प्रजा को कष्ट देता है, उसका सम्पूर्ण अस्तित्व समाप्त हो जाता है, धर्म से ही राज्य की वृद्धि होती है और उससे राष्ट्र, दुर्ग, कोष एवं बल की प्राप्ति होती है।
कामन्दक के अनुसार धर्म से अर्थ की प्राप्ति होती है और अर्थ से काम की । अतः कामन्दक ने धर्म के पालन पर विशेष बल दिया, आचार्य कामन्दक के इस विचार से पता चलता
शोधछात्र, बिहार विश्वविद्यालय । १. कामन्दकीय नीतिसार सर्ग- १, श्लोक नं० १४, सर्ग- ६, श्लोक नं० ३, २. डॉ० रामनरेश त्रिपाठी, प्राचीन भारतीय आर्थिक विचार, पृष्ठ-२३६, ३. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१, श्लोक-१६-१७ । ४. कामन्दकीय नीतिसार, सर्ग-१, श्लोक-४१-४९ ।
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